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चेतना का अनुसंधान करते हुए चैतन्य हो जाना ही अध्यात्म का लक्ष्य है, कैसे?

चेतना का अनुसंधान कोई नया विचार नहीं है। अनादि काल से विकसित मनुष्यों ने आंतरिक दुनिया तक पहुंच की तलाश की है। आसन, प्राणायाम और ध्यान से लेकर नृत्य, उपवास, एकांतवास तक अनगिनत तकनीकें इजाद की हैं। वहीं, पश्चिमी मनोवज्ञानिकों ने भी इसे बुद्धि के माध्यम से जानने की कोशिश की।

Photo by Sebastian Pena Lambarri / Unsplash

दुनिया में कुछ चीजें हमें दिखाई देती हैं, और कुछ ऐसी हैं जिनका हम अनुभव तो करते हैं, लेकिन हम अपनी आंखों से उसे देख नहीं सकते हैं। जो दिखाई देती है उसके अनुसंधान को विज्ञान का नाम दिया गया है। लेकिन हमारे भीतर चेतना भी है, जिसका वास्तव में हमें अनुभव तो होता है, लेकिन हम उसे पदार्थ की तरह लैब में परीक्षण नहीं कर सकते हैं। यहीं पर धर्म और अध्यात्म का जन्म होता है। अपनी इसी चेतना को जानते हुए चैतन्य हो जाना ही आध्यात्मिक लक्ष्य बताया गया है।

चेतना का अनुसंधान कोई नया विचार नहीं है। अनादि काल से विकसित मनुष्यों ने आंतरिक दुनिया तक पहुंच की तलाश की है। आसन, प्राणायाम और ध्यान से लेकर नृत्य, उपवास, एकांतवास तक अनगिनत तकनीकें इजाद की हैं। वहीं, पश्चिमी मनोवज्ञानिकों ने भी इसे बुद्धि के माध्यम से जानने की कोशिश की। आइए हम पश्चिमी मनोविज्ञान और भारत की आध्यात्मिक खोज के आधार पर इसका विश्लेषण करने का प्रयास करते हैं और यह जानने की कोशिश करेंगे कि दोनों किस जगह पर खड़े हैं।

आधुनिक मनोवैज्ञानिक मन के व्यावहारिक विज्ञान को परत दर परत जानने की कोशिश में जुटे हैं, लेकिन वे सबसे बुनियादी और मौलिक प्रश्न का उत्तर देने में भी सक्षम नहीं हैं कि ‘मन क्या है’? ऐसे में आधुनिक मनोवैज्ञानिक तकनीकों के माध्यम से मानसिक समस्याओं को हल करना तो बहुत दूर की बात है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि कई मनोवैज्ञानिकों ने पश्चिमी और पूर्वी तकनीकों के बीच एक समझ विकसित करने के प्रयास में ध्यान और योग के गूढ़ रहस्यों की ओर रुख किया है।

मनोवैज्ञानिक और योगिक दृष्टिकोण के बीच मूल अंतर कार्यप्रणाली में है। मनोवैज्ञानिक का उद्देश्य बुद्धि के माध्यम से अन्य लोगों के अनुभवों के माध्यम से मन और चेतना को समझना है। योगी का उद्देश्य बुद्धि की आवश्यकता को दरकिनार करते हुए ध्यान अवस्था में रहते हुए मन का प्रत्यक्ष अनुभव करना है।

इसे ऐसे समझें कि अगर वैज्ञानिक से पूछिये कि फूल सुंदर है, तो वह क्या करेगा? वह फूल को तोड़ेगा, काटेगा, जांच—पड़ताल करेगा। लेकिन तोड़ने की इस प्रक्रिया में ही फूल का सौंदर्य खो जाता है। सौंदर्य तो पूरे में था। योग दर्शन है फूल की समग्रता को स्वीकार करते हुए उसके सौंदर्य की गहराई को अनुभव करना।

दरअसल, योग इस सिद्धांत पर काम करता है कि बुद्धि मन का केवल एक छोटा और अलग-थलग हिस्सा है, एक हिस्सा जो अपने स्वभाव को समझने में असमर्थ है। विज्ञान की भाषा में बात करें तो यह केवल एक प्रोसेसर है, एक कंप्यूटर की तरह, और कुछ ऐसा है जिसका उपयोग हम अपने व्यक्तिगत पहचान (अहंकार) के साथ, समय और स्थान की दुनिया के माध्यम से हमारे मार्ग को आसान बनाने के लिए करते हैं।

सच्ची समझ और स्थायी ज्ञान, उन तथ्यों के विपरीत है जो समय के हिसाब से प्रतिपल बदलते रहते हैं। मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक आम तौर पर बुद्धि का प्रयोग करते हुए शोध करते रहे हैं। वहीं, योगी बुद्धि से परे ध्यान में गहराई से गोता लगाते हैं जिससे ज्ञान और समझ के स्रोत का अनुभव कर सकें।ध्यान एक अवस्था है जो आंतरिक और सहज ज्ञान को हमारे रोजमर्रा के अनुभव में प्रवेश करने की अनुमति देता है। चेतना को समझने की समझ विकसित करता है। हमारी धारणा और समझ का विस्तार और समृद्ध करता है।

अगर हम आंतरिक स्थानों में सुरक्षित और समझदारी से प्रवेश करना चाहते हैं, तो यह सिर्फ योग के माध्यम से ही संभव है। ऐसा नहीं है कि बुद्धि से परे चैतन्य की यह अवस्था हमें एक दो दिन के खोज में हासिल हो जाएगी। इसके लिए ध्यान का अभ्यास व्यवस्थित और लगातार होना चाहिए। यह आम तौर पर एक अपेक्षाकृत धीमी प्रक्रिया है। फिर यह प्रक्रिया जीवन का एक हिस्सा बन जाती है। हम अपने आंतरिक अनुभवों को बेहतर बनाने के लिए, रोजमर्रा के अनुभवों को बेहतर बनाने के लिए ध्यान में अपने समय का उपयोग करते हैं। यह प्रक्रिया तब तक चलती है जब तक कि चेतना के अनुसंधान में हम खुद चैतन्य न हो जाएं।

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