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वर्षों से जारी इस ‘मुफ्तखोरी’ का भारत क्या कोई इलाज तलाश पाएगा?

भारत में मतदाताओं को ‘रिझाने’ की परंपरा काफी पुरानी है। सालों से राजनैतिक दल चुनाव के दौरान वोटरों को मुफ्त सुविधाएं या सामान देने का वादा करते रहे हैं और जीत भी हासिल करते रहे हैं। भारत की राजधानी दिल्ली में एक सीमा तक मुफ्त बिजली-पानी मिल रहा है तो यूपी में गरीबों को राशन बांटा जा रहा है।

भारत में अब यह मसला तूल पकड़ता जा रहा है कि चुनाव के दौरान विभिन्न राजनैतिक पार्टियां मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त में सुविधाएं देने का वादा करती है और जीत के बाद उस पर अमल भी करती है, क्या वह देश की अर्थव्यवस्था के लिए गंभीर परेशानी का सबब तो नहीं बन जाएगा? आशंका जताई जा रही है कि यह परंपरा लगातार जारी रही तो भारत का हाल भी श्रीलंका जैसा हो सकता है, जहां ऐसी घोषणाओं के चलते वहां गंभीर आर्थिक संकट खड़ा हो गया और लोगों को जरूरी सामान तक के लाले पड़ गए। इस मसले पर देश की सर्वोच्च अदालत में लगातार सुनवाई चल रही है। वैसे भारतीय संविधान को ध्यान में रखकर देखें तो वहां ऐसी किसी भी घोषणाओं पर रोक का कोई प्रावधान नहीं है। बड़ी बात यह है कि भारत में यह परंपरा सालों से जारी है। दक्षिण भारत से शुरू हुआ यह चलन अब पूरे देश की राज्य सरकारों को लुभाने लगा है और विभिन्न राजनैतिक दल ऐसी घोषणाओं के चलते ‘राज’ करने लगे हैं।

सुप्रीम कोर्ट में इस मसले पर लंबे समय से सुनवाई चल रही है।

सुप्रीम कोर्ट में इस मसले पर लंबे समय से सुनवाई चल रही है। मंगलवार को कोर्ट में वरिष्ठ वकील व देश के सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी के नेता अश्विनी उपाध्याय ने इस मामले को और आगे बढ़ाया। उन्होंने कहा कि करदाताओं के पैसे से देश के नेता मुफ्तखोरी के जरिए अपना चेहरा चमका रहे हैं। उन्होंने कहा कि देश के विभिन्न राज्यों पर 70 लाख करोड़ रुपये का कर्ज पहले से ही है, फिर भी मुफ्त की रेवड़ी बंट रही है। उन्होंने आशंका जताई की अगर यह मुफ्तखोरी बंद नहीं हुई तो भारत का हाल श्रीलंका जैसा हो जाएगा। उनकी मांग है कि मुफ्तखोरी के खिलाफ देश में कठोर कानून बनाए जाने की आवश्यकता है।

सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ता अश्विनी उपाध्याय ने इस मसले पर तर्क रखे और जानकारी दी कि देश के राज्यों पर बेहिसाब कर्ज है, पंजाब पर तीन लाख करोड़ रुपये, यूपी पर छह लाख करोड़ और पूरे देश पर 70 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है। ऐसे में अगर सरकार मुफ्त सुविधा देती है तो ये कर्ज और बढ़ जाएगा। मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एनवी रमना ने भी माना कि यह मसला ‘गंभीर’ है। इस बाबत जब उन्होंने भारत सरकार के वकील केएम नटराज से उनकी राय मांगी तो उनका कहना था कि यह चुनाव आयोग को तय करना है, इसमें केंद्र सरकार का कोई दखल नहीं है। जस्टिस रमना ने नाराजगी जताते हुए कहा कि सरकार इससे अपने आपको अलग नहीं कर सकती। उन्होंने केंद्र सरकार को एक हलफनामा दाखिल कर अपना पक्ष साफ करने का आदेश दिया है।

बहस लंबी चली, वरिष्ठ वकील व देश के पूर्व मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि इस मसले को वित्त आयोग को देखना होगा, क्योंकि वही राज्य सरकारों को फंड मुहैया कराता है। इसमें केंद्र सरकार का कोई रोल नहीं है। सुप्रीम कोर्ट अब तीन अगस्त को अगली सुनवाई करेगा। वैसे इस मसले पर देश का चुनाव आयोग भी अपना हलफनामा दे चुका है। उसका कहना है कि इस तरह के फ्री में चीजें देने का वादा करना राजनैतिक दलों का नीतिगत निर्णय है। ऐसे वादों पर इन दलों का पंजीकरण रद्द करने की शक्ति चुनाव आयोग के पास नहीं है। चुनाव आयोग ने यह भी कहा था कि देश की जनता को यह सोचना होगा कि ऐसे वादों से देश की अर्थव्यवस्था पर क्या असर होगा।

वैसे देखा जाए तो भारत में मतदाताओं को ‘रिझाने’ की परंपरा काफी पुरानी है। सालों से राजनैतिक दल चुनाव के दौरान वोटरों को मुफ्त सुविधाएं या सामान देने का वादा करते रहे हैं और जीत भी हासिल करते रहे हैं। इसी वादे के तहत भारत की राजधानी दिल्ली में लोगों को कुछ यूनिट तक बिजली फ्री और पानी भी मुफ्त में मिल रहा है तो पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में गरीबों को मुफ्त राशन बांटा जा रहा है। ऐसी लोक-लुभावन योजनाएं कई राज्यों में चल रही है। असल में यह योजना दक्षिण भारत से शुरू हुई। वर्ष 1981 में आंध्र प्रदेश में फिल्म अभिनेता ने अपनी पार्टी का चुनाव लड़ते वक्त लोगों को दो रुपये किलो चावल देने की घोषणा की थी। उसके बाद यह ‘परंपरा’ परवान चढ़ी। वर्ष 1991 से तमिलनाडु की मुख्यमंत्री ने तो ऐसी लगातार कई घोषणाएं की। कभी अम्मा कैंटीन, गरीब महिलाओं को शादी में मंगलसूत्र, कभी साड़ी, मिक्सी और न जाने क्या-क्या देती रहीं।

यह चलन पूरे भारत के राज्यों में तेजी से आगे बढ़ा। हाल यह हुआ कि वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव के दौरान भारतीय जनता पार्टी के एक कार्यक्रम ने गरीब महिलाओं में साड़ी बांटने का आयोजन किया, जिससे मची भगदड़ से 21 महिलाएँ और बच्चे मारे गए। अब तो ऐसा लगता है कि कोई भी राजनैतिक दल लुभावनी घोषणाओं और वादे के बिना चुनाव लड़ने की सोच ही नहीं सकता है। इसी के तहत पंजाब में जीती आप पार्टी ने वहां लोगों को 300 यूनिट तक मुफ्त बिजली देने की कवायद शुरू कर दी है। हरियाणा, राजस्थान व मध्य प्रदेश भी कुछ ऐसा ही कर रहे हैं।

सवाल यह है कि नेताओं द्वारा मतदाताओं रिझाने के लिए यह ‘मुफ्तखोरी’ की आदत रुक सकती है। यह स्पष्ट है कि कोई भी राजनैतिक दल इसको लेकर गंभीर नहीं है। इसीलिए मसला सुप्रीम कोर्ट में है, जहां से उम्मीद की जा रही है कि वहां से कोई तर्कसम्मत निर्णय आएगा। लेकिन समस्या यह है कि भारत में आज भी करोड़ों लोग गरीबी में जी रहे हैं और लाखों लोगों के पास रोजगार का अभाव है। सैंकड़ों गांव आज भी सूखा-बाढ़ से जूझते रहते हैं, तो अनेक शहरों में बुनियादी सुविधाओं का भी अभाव है। बीमारी और अन्य आपदाएं इस देश को चिंतित कर रही हैं, ऐसे में लोगों को सरकार की ओर से सुविधा न मिली तो इनका क्या होगा। सवाल गंभीर है और बहु-प्रणाली वाले इस देश में उसका जवाब तलाशना वाकई मुश्किल है।

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