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अब से पहले भारतीय फिल्मों से क्यों दूर रहा ‘ऑस्कर’?

कहा जाए तो हाल के ये दो ऑस्कर अवॉर्ड ही असली भारतीय हैं। लेकिन ऐसी क्या बात रही कि विश्व में सबसे अधिक फिल्में बनाने वाले भारत को ऑस्कर के 94 साल के इतिहास में सही मायनों में एक भी ऑस्कर नहीं मिल सका था।

इस बार भारतीय फिल्मों ने ऑस्कर समारोह में धूम मचा दी। भारत ने दो अवॉर्ड हासिल किए। वैसे तो पहले भी भारतीय फिल्मों और हस्तियों को ऑस्कर अवॉर्ड मिले हैं लेकिन इस बार मिले दो पुरस्कार सही मायनों में भारतीय फिल्मों से जुड़े हैं। भारत का सिनेमा और भारतवासी इस बार इसलिए भी ज्यादा खुश हैं कि भारतीय सिनेमा को ऑस्कर के इतिहास में एकसाथ दो पुरस्कार मिले हैं। इससे पहले मिले ऑस्कर अवॉर्ड मोटे तौर पर पूर्ण नहीं थे। इसके पीछे कुछ न कुछ कारण तो रहे ही होंगे?

सभी फोटो साभार:सोशल मीडिया

अमेरिका के लॉस एंजलिस में हुए 95वें ऑस्कर समारोह में भारत की तेलुगु फिल्म ‘RRR’ के गीत ‘नाटू नाटू’ को बेस्ट ओरिजिनल सॉन्ग का अवॉर्ड मिला है, तो बेस्ट डॉक्यूमेंट्री शार्ट फिल्म में तमिल भाषा की ‘द एलिफेंट विस्पर्स’ ने ऑस्कर जीता है। विशेष बात यह है कि भारत में सबसे ज्यादा हिंदी फिल्में और उससे जुड़े गाने बॉलिवुड में बनते हैं। उसके मुकाबले क्षेत्रीय भाषा में फिल्में और गाने कम रिलीज होते हैं। इसके बावजूद इस बार मिले दोनों अवॉर्ड क्षेत्रीय भाषाओं से जुड़े हैं। हिंदी सिनेमा की फिल्मों में करोड़ों रुपये लग रहे हैं और कई फिल्में हर साल करोड़ों रुपये कमाती भी हैं। हिंदी फिल्मों के कई हीरो को भगवान जैसा दर्जा हासिल है। करोड़ों दर्शक उनके फैन हैं। फिल्म समीक्षक भी हिंदी फिल्मों को बेहतर बताते हैं। इसके बावजूद हिंदी फिल्मों ने अभी तक शुद्ध रूप से ऑस्कर पुरस्कार नहीं जीता है। जिन फिल्मों या हस्तियों को ये पुरस्कार अभी तक मिला है, वे हिंदी सिनेमा से सीधे नहीं जुड़े हैं।

अब बात करते हैं कि इन दो ऑस्कर अवॉर्ड से पहले किन भारतीय या कहें कि हिंदी फिल्मों ने ऑस्कर जीता और वे शुद्ध रूप से भारतीय फिल्में क्यों नहीं हैं। भारत में महात्मा गांधी पर वर्ष 1983 में बनी ‘गांधी’ फिल्म ने पहला ऑस्कर अवॉर्ड अपने नाम किया था। इस फिल्म की कॉस्ट्यूम डिजाइनर भानु अथैया को अन्य डिजाइनर जॉन मोलो के साथ कॉस्ट्यूम डिजाइन करने के लिए ऑस्कर दिया गया था। लेकिन यह फिल्म किसी भारतीय निर्माता निर्देशक की नहीं बल्कि ब्रिटिश फिल्मकार रिचर्ड एटनबरो और उनकी टीम की थी। भारत में दूसरा ऑस्कर वर्ष 1991 में किसी फिल्म के रूप में नहीं बल्कि बांग्ला फिल्मी हस्ती सत्यजीत रे के जरिए आया। उन्हें ऑस्कर का ‘ऑनरेरी लाइफटाइम अचीवमेंट’ अवार्ड दिया गया। लेकिन यह अवॉर्ड उनकी फिल्म को नहीं बल्कि भारतीय सिनेमा में उनके योगदान को देखते हुए प्रदान किया गया था। लेकिन यह फिल्म भी ब्रिटिश फिल्मकार क्रिश्चियन कोलसन और उनकी विदेशी टीम ने बनाई थी। यानी ये सभी अवॉर्ड विशुद्ध हिंदुस्तानी नहीं थे।

भारत में बनी गांधी फिल्म को पहला ऑस्कर मिला था, लेकिन यह भारतीय फिल्म नहीं थी।

सही मायनों में कहा जाए तो हाल के ये दो ऑस्कर अवॉर्ड ही असली भारतीय हैं। लेकिन ऐसी क्या बात है कि विश्व में सबसे अधिक पिक्चरें बनाने वाले भारत देश को ऑस्कर अवॉर्ड के पिछले 94 साल के इतिहास में एक भी सही मायनों में ऑस्कर नहीं मिला। बड़ी बात यह है कि भारत में ऐसे अनेक निर्माता निर्देशक हुए हैं, जिन्हें पूरी दुनिया जानती है, उनकी फिल्मों ने देश-विदेश में अपनी पहचान बनाई और उनकी फिल्मों ने मोटी कमाई भी की। इन निर्माता निर्देशकों में दादासाहेब फाल्के, महबूब खान, सत्यजीत रे, गुरुदत्त, अदूर गोपालकृष्णन, जी अरविंदन, बिमल रॉय, राजकपूर, ऋषिकेष मुखर्जी, शक्ति सामंत, बासु चटर्जी, श्याम बेनेगल, प्रकाश मेहरा, और शेखर कपूर आदि प्रमुख हैं। हैरानी की बात यह है कि इनमें से कुछ फिल्मी हस्तियों की तो विदेशों में भी खासी इज्जत है। इनके तैयार किए फिल्म स्टारों ने बरसों तक लोगों के दिलों पर राज किया या आज भी कर रहे हैं। इनमें राजकपूर, दिलीप कुमार, देवानंद, अमिताभ बच्चन जैसे सितारे शामिल हैं।

ऑस्कर विनिंग फिल्म स्लमडॉग मिलेनियर के निर्माता-निर्देशक भी विदेशी ही थे।

इस मसले पर जाने-माने फिल्म समीक्षक चंद्रमोहन शर्मा का कहना है कि असल में भारतीय सिनेमा विशेषकर हिंदी सिनेमा का ‘टारगेट’ कभी भी ऑस्कर सिनेमा रहा ही नहीं है। यही कारण है कि यहां बनने वाली अधिकतर फिल्मों की थीम ओरिजिनल स्टोरीज पर कम होती हैं। निर्माता निर्देशकों का एक ही उद्देश्य होता है कि ऐसी फिल्म बनाई जाए जिसे देखकर दर्शक अपना पैसा वसूल कर सकें। इसी का परिणाम है कि फिल्मों में फूहड़ भावुकता, सस्ते डायलॉग, जबर्दस्ती के गाने व डांस डाले जाते हैं ताकि दर्शकों को आनंद की अनुभूति हो। शर्मा के अनुसार कई ऐसी फिल्में व गाने भारत में पहले भी बने हैं, जिन्होंने जबर्दस्त रेकॉर्ड बनाया है। विदेशी समीक्षकों ने भी उनकी सराहना की। लेकिन समस्या यह रही कि ऐसी फिल्मों में मौलिकता का अभाव था। अगर ओरिजिनल्टी थी भी तो उसमें इमोशन और ऐसे डायलॉग थे जो कहीं से उठाए गए थे। इसी कड़ी में आरडी बर्मन के संगीत की बात करें तो उनके संगीतबद्ध गानों ने पूरी दुनिया में धूम मचाई है, लेकिन विडंबना यही है कि उनके ऐसे गानों का संगीत ओरिजिनल नहीं था। अब जो नए निर्माता निर्देशक आए हैं, वे ओरिजिनल्टी का विशेष ध्यान रख रहे हैं, भारत की असली संस्कृति को उजागर कर रहे हैं और सामाजिक व आर्थिक बदलावों पर बारीक फिल्में बना रहे हैं। इसी कड़ी में मसान फिल्म का नाम लिया जा सकता है।

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