बंदूक से हिंसा का कैंसर फैल रहा है। जापान के पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे एक कायर हत्यारे की गोलियों का उस समय शिकार हुए जब वह उच्च सदन के चुनाव के लिए प्रचार अभियान में जुटे थे। पूर्व प्रधानमंत्री आबे (67) ने हाल ही में स्वास्थ्य कारणों से प्रधानमंत्री का पद छोड़ दिया था। उनका शुमार युद्ध के बाद सबसे लंबे समय तक सेवारत रहने वाले नेताओं में होता है। शीर्ष पद पर उनका कार्यकाल दो हिस्सों में रहा है। एक 2006 से 2007 तक और दूसरा 2012 से 2020 तक।

आबे राजनीति के लिए नवागंतुक नहीं थे। उनकी परवरिश राजनीतिक परिवेश में ही हुई। उनके दादा नोबुसुके किशी और चाचा एसाकु सातो देश के प्रधानमंत्री रह चुके हैं और उनके पिता शिंतारो आबे 1982 से 86 तक विदेश मंत्री के रूप में देश को अपनी सेवाएं दे चुके हैं। दरअसल युवा आबे अपने पिता के सहायक थे। यह वह दौर था जब जापान अंतरराष्ट्रीयकरण के चरण में प्रवेश कर रहा था। शिंजो ने अपने उच्च शिक्षा जापान और अमेरिका से हासिल की।
पूर्व प्रधानमंत्री ने तो यह सोचा भी न होगा कि एक दिन वह किसी हत्यारे की गोलियों का निशाना बन जाएंगे। जापान कई बातों के लिए जाना जाता है। इनमें से ही एक है जापान का सख्त अस्त्र विधान। व्यावहारिक रूप से यह इतना कड़ा है कि एक लंबी और कठोर प्रक्रिया के बगैर कोई अपने पास हथियार नहीं रख सकता। और यहां हथियार हासिल करने का कोई शॉर्ट कट भी नहीं है।

हथियार प्राप्त करने के लिए यहां का सरकारी महकमा लिखित परीक्षा पर जोर देता है। अस्त्र लेने के लिए किसी शूटिंग रेंज या विद्यालय में औपचारिक प्रशिक्षण दिया जाता है। पुलिस की पड़ताल होती है। शारीरिक परीक्षा होती है। तीन साल का समय होता है जिसके बाद एक लंबी प्रक्रिया पूरी करनी होती है। हथियार और गोलियां अलग स्थान पर रखनी होती हैं। और इस सबके बाद किसी की समय यानी औचक निरीक्षण किया जा सकता है। कुल मिलाकर इतनी लंबी प्रक्रिया है हथियार प्राप्त करने की। जाहिर तौर पर लाइसेंसी हथियार।
हत्यारे के बारे में कहा जाता है कि एक समय वह जापान की थल सेना का सदस्य था। खैर, बावजूद इतनी लंबी प्रक्रिया के उसने हथियार जुटा ही लिया। इस बार उसने दुनाली इसलिए जुटाई थी कि उसे एक कायराना कृत्य को अंजाम देना था। और सिर्फ इसलिए कि उसका पूर्व प्रधानमंत्री से नीतिगत विरोध था। आबे की एक दृढ़ रूढ़िवादी सोच थी। आबे ने अपनी लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी के अंदर और साथ ही विपक्षी खेमे से भी खुलकर बहस की। अपनी सोच और नीतियों के लेकर वह हर हाल मे आगे बढ़ने वाले व्यक्ति थे। भले ही उनकी नीतियां राष्ट्रीय सुरक्षा खर्च को लेकर रही हों या फिर देश को आर्थिक संकट से उबारने के लिए कड़़े फैसलों से ताल्लुक रखती हों। अपनी नीतियों को लेकर उन्हे कोई सियासी भय नहीं था।

जहां तक विदेश नीति का सवाल है तो वह जापान में एक ऐसे नेता थे जो अपने मन की बात कहते से कभी नहीं डरते थे। भले उससे बीजिंग नाराज हो जाए या मॉस्को। प्योंगयांग खफा हो जाए या अमेरिका। अपने एक हालिया लेख में आबे ने कहा था कि अब समय है कि अमेरिका ताईवान की सुरक्षा पर अपनी सामरिक अस्पष्टता को त्याग दे। आबे के इस विचार को राष्ट्रपति जोसेफ बाइडेन ने इस मई में जापान की अपनी यात्रा के दौरान प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से स्वीकार भी किया था। सच तो यही है कि अगर आबे अपने कार्यालय में सक्रिय होते तो जापानी सेना के चरित्र में बदलाव को लेकर कई कदम बढ़ चुके होते। शायद ऐसा ही कुछ या फिर कहें कि एक फीसदी रक्षा खर्च के मामले में भी हुआ होता। यह दीगर है कि इस सब को काल के अनुक्रम में न देखा जाता।

भारत के साथ आबे के रिश्ते कुछ खास रहे। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के रूप में आबे ने एक निजी मित्र पाया था। अपने पहले, किंतु छोटे से कार्यकाल के दौरान आबे भारत आए थे। उन्होंने 2007 में संसद को संबोधित भी किया था। दूसरे कार्यकाल में वे तीन बार भारत आए। एक बार 2014 में गणतंत्र दिवस परेड का मुख्य अतिथि के रूप में हिस्सा बने थे। उनकी वह यात्रा इस मायने में अलग थी कि वह ऐसे पहले जापानी प्रधानमंत्री थे जो कई बार भारत आए। लेकिन आबे और भारत को इस बात था अहसास था कि इंडो-पैसिफक क्षेत्र में क्षमताएं तो हैं ही पर साथ में चुनौतियां भी हैं। और अगर राजनीतिक ऊर्जा का सही तरीके इस्तेमाल किया जाए तो अवसर भी हैं।
आबे और उनके उत्तराधिकारियों के लिए भारत बुलेट ट्रेन और मेट्रो रेल सिस्टम से आगे बहुत कुछ है। दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद दशकों से चली आ रही राजनीतिक सद्भावना के बावजूद यह एक ऐसे रिश्ते को बेहतर बनाने पर था जो वास्तव में आगे नहीं बढ़ सका। आबे ने भारत के साथ एक समग्र संबंध की आवश्यकता को देखा जिसमें रक्षा प्रौद्योगिकियों और नागरिक परमाणु सहयोग में सार्थक सहयोग भी शामिल होगा। बेशक, पिछले एक दशक में टोक्यो ने उत्तर पूर्व में भारतीय राज्यों की विकासात्मक अनिवार्यताओं में गहरी दिलचस्पी दिखाई है। चाहे वे स्थितियां द्विपक्षीय हों या बहुपक्षीय आबे को इस बात का अहसास था कि भारत कहां से आ रहा है और इस प्रक्रिया में विचार-विमर्श उपयोगी हो रहा है।
आबे का भयावह अंत निश्चित रूप से जापान और हिंद प्रशांत क्षेत्र में भारत जैसे उसके अच्छे दोस्तों के लिए एक नुकसान के रूप में देखा जाएगा।
-लेखक इंडियन स्टार के प्रधान संपादक हैं