क्या आपने अपने आसपास के लोगों पर गौर किया है? क्या आपने स्वयं को कभी गौर किया है। अगर हम सामान्य आधुनिक मनुष्य की बात करें तो वह बहुत विरोधाभासी और जटिल जान पड़ता है। वह अपने स्वयं के भीतर संघर्षों के बीच मौजूद रहता है। वह द्वेत में जीता है। उसका व्यक्तित्व बंटा हुआ है। जिस तरह से वह जीता है, वह उससे सहमत नहीं है। जिस तरह से वह सोचता है, वह स्वीकार नहीं करता है।
वह पैसे के पीछे भागता है, लेकिन वह हमेशा इस रवैये की आलोचना भी करता रहेगा। उसका मन सेक्स से भरा होता है, लेकिन उसकी बात सुनें तो वह हमेशा इसकी आलोचना करता रहेगा। यह एक बहुत ही परस्पर विरोधी व्यक्तित्व है जिसे आधुनिक मनुष्य ने विकसित किया है।
आज के दौर में ऐसे कई लोग आपको मिल जाएंगे जो मांसाहारी भोजन करते हैं, लेकिन वे ये भी कहते मिल जाएंगे कि यह अच्छा नहीं है। वह जहां जिस स्थिति में है उससे खुश नहीं है। लेकिन जो वह होना चाहता है, उसे पाकर भी वह खुश नहीं है। इसे मनुष्य के व्यक्तित्व का संघर्ष कह सकते हैं और यही आधुनिक मनुष्य की परिभाषा है। कभी आप अपने आप का परीक्षण करेंगे तो द्वैत की इस अवस्था को आप भी कहीं न कहीं भीतर अनुभव करेंगे।
यही आधुनिक मनुष्य बम बनाता है, दुनिया पर हमले करता है। वही युद्धक विमान, बैलिस्टिक मिसाइल बनाता है। वह दूसरों को मिटाना चाहता है, बलात्कार करना चाहता है, लेकिन फिर भी बातें शांति और सदाचार की करता मिलेगा। सार्वजनिक मंचों पर ये अमन, अहिंसा की बातें करते मिलेंगे। यह एक परस्पर विरोधी व्यक्तित्व की परिभाषा है और वह आधुनिक मनुष्य है।
अगर आपके दिमाग में ऐसी बातें होती हैं, अगर आपका व्यक्तित्व बंटा हुआ है, तो आप सावधान हो जाएं। इसका मतलब है कि आपके भीतर असंतुलन, अनिर्णय, आत्मविश्वास की कमी, इच्छाशक्ति का अभाव, डर और चिंता का शासन है। इसका मतलब है कि आपके भीतर वो अंतदृष्टि विकसित नहीं हुई है। विवेक विकसित नहीं हुआ है।
अंतर्दृष्टि एक ऐसी स्थिति है जब आपको पता चलता है कि आप वास्तव में क्या कर रहे हैं। आप गलत-सही का अंतर कर पाते हैं। लेकिन आपको कैसे पता चलेगा कि आपके भीतर यह अंतदृष्टि विकसित हो गई है। इसका सीधा उत्तर यह है कि जब आप मन, वचन और कर्म से एक हो जाएं तो समझ लीजिए आप विकेकपूर्ण जीवन जी रहे हैं। मतलब जैसा आप सोचते हैं, वैसा ही बोलते हैं और वैसा ही करते हैं।
सवाल है कि यह स्थिति आएगी कैसे। भगवान श्रीकृष्ण गीता में इस स्थिति को समत्व कहते हैं। मतलब, मन-वचन-कर्म में एक समता हो। और श्रीकृष्ण इसे ही योग कहते हैं। अद्वैत की यह स्थिति योग साधाना से आती है। इसलिए योग आधुनिक मनुष्य के लिए वरदान के रूप में सामने आया है। योग के अभ्यास में मन, भावनाएं संतुलित हो जाती हैं। और वह अंतर्दृष्टि या विवेक प्राप्त कर सकता है और इसका परिणाम देख पाता है।
आपने देखा होगा कि पानी में डिटर्जेंट पाउडर आपके कपड़े से सारा तेल निकाल देता है। उसी तरह, जब आप योग का अभ्यास करते हैं, तो यह आपके द्वैत के तेल को आपके दिमाग से और आपके जीवन से बाहर कर देता है। यह आपको समग्र बनाता है। अगर हम अभी से बहुत सावधान रहें और अपने बच्चों को योग सिखाएं, तो हमारी अगली पीढ़ी को वैसी त्रासदी, वही संकट, नहीं झेलनी पड़ेगी जैसा आज हम पूरी दुनिया में होते देख रहे हैं।