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भारत में अमेरिकी राजदूत की राह और एरिक गार्सेटी का इंतजार

कुछ लोग कह सकते हैं कि गार्सेटी के लिए भारत में बतौर अमेरिकी राजदूत कई चीजें सहज नहीं होंगी लेकिन उनमें इतना माद्दा तो है ही कि दरकार होने पर वह दिल्ली से सीधे ओवल कार्यालय फोन घुमा सकते हैं।

एक लंबे इंतजार का अंत करीब है। करीब ढाई साल से अधिक का इंतजार। दूर एक रोशनी दिख रही है जो बता रही है कि राजनय का एक नया अध्याय आरंभ होने वाला है। लेकिन कुछ लोगों की सलाह है कि अभी से उत्साह में नगाड़े न बजाए जाएं। लॉस एंजिलिस के पूर्व मेयर एरिक गार्सेटी के नाम से भारत में भले ही बहुत लोग वाकिफ न हों लेकिन दिल्ली और वाशिंगटन में सत्ता के गलियारों में कदमताल करने वाले अधिकारी अब कुछ राहत में होंगे कि आखिर भारत में अमेरिका के राजदूत का पदार्पण होने वाला है। ऐसा मुल्क जिसे प्राय: महाबली का रणनीतिक साझेदार कहा जाता है।

इस मामले में बहुत देरी हो चुकी है। बाइडेन प्रशासन भले ही इसे लेकर कुछ भी कहे लेकिन यकीनन बहुमूल्य समय की बर्बादी हुई है। आरोप-प्रत्यारोप से भी कुछ होने वाला नहीं है। अब बाइडेन के इस कार्यकाल में समय भी कम ही बचा है। इंडो-पैसिफिक सुरक्षा का मसला ऐसा नहीं है जिसे क्षेत्र के लोग सुकून देने वाले एक कारक के रूप में देखेंगे। विशेष रूप से पूर्वी एशिया में बढ़ते तनाव, पाकिस्तान और दक्षिण एशिया में बढ़ते संकट के अलावा यूक्रेन में जारी युद्ध ऐसे मुद्दे हैं जो अमेरिका की भूमिका पर सवालिया निशान छोड़ते हैं। अमेरिका और चीन के बीच गर्मा-गर्मी का खेल तो चल ही रहा है। यह उस समय चिंताजनक या डराने वाला बन जाता है जब ड्रैगन ताईवान को लेकर सख्त हो जाता है।

यूक्रेन युद्ध के बाद रूस और चीन के करीब आने की संभावना को भू-राजनीति में एक स्थिर प्रभाव के रूप में नहीं देखा जाता। ये तमाम मसले तब और भी अधिक मुखर हो उठते हैं जब भारत में अमेरिका के राजदूत की मौजूदगी न हो। गार्सेटी ने पिछले सप्ताह सीनेट की विदेश संबंध समिति का चरण (13-8) पार कर लिया है। इसमें दो रिपब्लिकन सदस्यों ने भी डेमोक्रेट्स का साथ दिया था। लेकिन अभी नामांकन पर पूर्ण सीनेट में मतदान के बाद मुहर लगना बाकी है। वर्तमान स्थितियों में ऐसा नहीं लगता कि गार्सेटी के लिए कोई संकट खड़ा होने वाला है लेकिन फिर भी कुछेक रिपब्लिकन और डेमोक्रेट्स के मन में कुछ पूर्वाग्रह हैं। हालांकि यह पूर्वाग्रह सीधे तौर पर गार्सेटी के नाम को लेकर नहीं हैं। अलबत्ता जिस तरीके से वह एक शीर्ष अधिकारी से जुड़े आरोपों से निपटे, उन्हें लेकर अवश्य है।

गार्सेटी के नामांकन पर रोक लगाने वाले फ्लोरिडा के सीनेटर मार्को रुबियो ने हाल ही में इसी संदर्भ में कहा था, 'मैं इन बेतुके नामांकनों से आंखें नहीं बंद करूंगा जो अमेरिका के पतन को गति देगा।' इस बात में कोई संदेह नहीं है कि वर्ष 2000 में जब तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भारत गए थे, तब से लेकर अब तक दोनों देश एक लंबा रास्ता तय कर चुके हैं। आगे दूर तलक जाना भी है। हाउडी मोदी और नमस्ते ट्रम्प जैसे आयोजनों से हम आगे निकल चुके हैं। कुछ लोग कह सकते हैं कि गार्सेटी के लिए कई चीजें सहज नहीं होंगी लेकिन उनमें इतना माद्दा तो है ही कि दरकार होने पर वह दिल्ली से सीधे ओवल कार्यालय फोन घुमा सकते हैं।

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