योग का अभ्यास करने वाले लोग भौतिक चीजों पर ध्यान नहीं देते हैं। जो योगी हैं वे वर्तमान क्षण में रहते हैं और उन्हें भविष्य के बारे में चिंता करने की आवश्यकता नहीं होती है। जो लोग योगासन और ध्यान का अभ्यास करते हैं, वे धन को लेकर बेफिक्र होते हैं।
योग और इससे जुड़े लोगों को लेकर ऐसी बातें आमतौर पर आप सुनते ही होंगे। योगभ्यासी लोगों को संसार से कोई मतलब नहीं होता है और धन की बातें करना जैसे उनके लिए पाप ही है। लेकिन आज के दौर में ऐसी बातें मिथक के सिवाय कुछ नहीं है। सवाल उठता है कि ध्यान और सांसारिक संपदा के बीच कोई संबंध है? क्या ध्यान और योग के अभ्यासी को धन संग्रह नहीं करना चाहिए। धन नहीं अर्जित करना चाहिए?
इस सवाल का जवाब भारतीय चिंतन-दर्शन में है। अगर आप भारत के जीवन दर्शन से परिचित हैं तो आपको पता ही होगा कि भारतीय चिंतन चार पुरुषार्थ की बातें करता है। ये चार पुरुषार्थ हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इसमें धर्म के साथ अर्थ यानी धन का भी उतना ही महत्व है। प्राचीन भारतीय विचारकों ने मनुष्य के जीवन को आध्यात्मिक, भौतिक और नैतिक सभी दृष्टि से उन्नत करने के लिए पुरुषार्थ की आवश्यकता पर बल दिया है। इसलिए जीवन में सुख के दो आधार बताए गए हैं, एक भौतिक और दूसरा आध्यात्मिक। इस तरह से भौतिक जगत का निषेध नहीं किया गया है।
अगर हम वेदांत की बातें करते तो इसमें संसार को माया अर्थात भ्रम बताया गया है। इसे एक उदाहरण से समझाया गया है कि कभी कभी हम रस्सी को सांप समझ लेते हैं, लेकिन वास्तव में वह एक रस्सी है। उसी तरह से इस संसार को हम सत्य समझ लेते हैं, जबकि यह भ्रम है। अब कुछ लोगों ने इसे ये समझ लिया कि संसार तो भ्रम है, फिर इस भ्रम के पीछे क्यों भागना। धन, वैभव का संग्रह क्यों करना।
लेकिन यह धारण पूरी तरह से उचित नहीं कही जा सकती है। रस्सी-सांप के उदाहरण से ही समझें तो जब तक हम रस्सी को सांप मान रहे हैं, तब तक तो वो सांप ही है। उसी तरह से जब तक यह संसार है, या हमें जब तक इसका ज्ञान नहीं है तो ये संसार एक भ्रम है, तब तक तो इसका अस्तित्व रहेगा ही। और हम इससे बच नहीं सकते, भाग नहीं सकते हैं।
इसलिए भारतीय चिंतन में इस संसार को स्वीकार करते हुए भौतिक, आध्यात्मिक लक्ष्य को हासिल करने की बात कही गई है। किसी चीज का निषेध नहीं किया गया है। तो सवाल उठता है कि क्या योगाभ्यासी, ध्यान करने वाला शख्स संसार की जरूरतों के लिए धन संग्रह करता है, निवेश करता है, तो वो गलत है। क्या ऐसा करना पाप है?
इन सवालों का जवाब हमें गीता से मिल जाता है। भगवान श्रीकृष्ण आध्यात्मिक लक्ष्य को हासिल करने के लिए निष्काम कर्मयोग की बात करते हैं। इससे संसार भी चलता है और साधक अपने लक्ष्य को भी हासिल कर सकता है। भगवान कृष्ण के कहने का तात्पर्य यह है कि हम धन संग्रह तो करें, वैभव को खड़ा करें, लेकिन हमारी उसमें आसक्ति नहीं हो। उससे हमारा लगाव नहीं हो। उस धन का हम भोग भी करें, लेकिन कर्ता भाव से नहीं, आसक्ति भाव से नहीं, ब्लकि एक निष्काम कर्मयोगी की तरह। यह संसार हमारे लिए उस तरह से हो जाए जैसा कमल का फुल है। वह रहता तो पानी में ही है, लेकिन पानी उसे स्पर्श नहीं करता है।