योग में एक बात पर स्पष्ट है कि आपके व्यक्तित्व में कोई संघर्ष नहीं होना चाहिए। अगर संघर्ष है तो आपका मन कभी शांत नहीं होगा। लेकिन यह संघर्ष क्या है? दरअसल, अगर आपका मन विरोधी विचारों में बंटा है तो आप संघर्ष की स्थिति में हैं। मान लीजिए कि आप शराब पीना चाहते हैं, लेकिन साथ ही मानते हैं कि यह बुरा है। अब यह आपके भीतर एक संघर्ष को जन्म देता है। अगर यह संघर्ष अधिक समय तक चलता रहा तो यह मानसिक विकृति का कारण बन सकता है। अब सवाल उठता है कि इसके समाधान का रास्ता क्या है?
श्रीमद्भगवद्गीता में युद्ध शुरू होने से पहले अर्जुन इसी बंटे हुए मन के साथ हैं। वह भगवान श्रीकृष्ण से कहते हैं कि मन को वश में करना बहुत कठिन है, क्योंकि मन बहुत शक्तिशाली होता है। भगवान श्रीकृष्ण उन्हें बताते हैं कि यह हवा को नियंत्रित करने जितना मुश्किल है, लेकिन वह अर्जुन को प्रोत्साहन देते हैं और आश्वासन देते हैं कि यह संभव है और इसे नियंत्रित किया जा सकता है।
भगवान श्रीकृष्ण इसके लिए रास्ता भी बताते हैं। वह अर्जुन से कहते हैं कि जब भी उसका मन बाहर की ओर जाए और बेचैन और अस्थिर हो जाए, तो उसे सीधे वापस अंदर की तरफ लाना चाहिए। लेकिन मन को नियंत्रित करने का यह अभ्यास क्या आम लोगों के लिए आसान है? क्योंकि आज का मनुष्य मानसिक तौर पर बहुत ही अस्थिर है। वह तामसिक गुणों से भरा हुआ है। तो ऐसे लोगों के सामने मन को नियंत्रित करने का कोई अन्य उपाय नहीं है?
गीता में भगवान श्रीकृष्ण इसके लिए अभ्यास और वैराग्य की बात बताते हैं। इसका मतलब है कि आपको अपने विचारों को नियंत्रित करने का प्रयास नहीं करना है। बस खुद को उनसे अलग कर लें। आप बस उन्हें एक गवाह, एक द्रष्टा की तरह देखते हैं। आपका दृष्टिकोण यह होना चाहिए, 'मैं विचार नहीं हूं, मैं केवल विचार प्रक्रिया का गवाह हूं।' यह वैराग्य है, मन में आने वाले किसी भी विचार के प्रति आसक्ति न होना।
जब आप इस दृष्टिकोण को विकसित करते हैं, तो मन शांत और शांत हो जाता है। इस प्रक्रिया में आप अपने व्यक्तित्व के साथ संघर्ष में नहीं हैं। विचारों का कोई द्वैत नहीं है। आप महज एक द्रष्टा हैं। गीता में भगवान कहते हैं कि मन तुम्हारा शत्रु है, लेकिन वह तुम्हारा मित्र भी है। इसमें कोई संघर्ष नहीं होना चाहिए।
मन को संषर्षमुक्त करने के लिए योग में और भी कई उपाय बताए गए हैं। इसमें एक त्राटक का अभ्यास है। आप आंखों को एक स्थिर बिंदु, आंतरिक या बाहरी पर स्थिर करते हैं, ताकि पुतलियां एक से दस मिनट तक हिलें या झिलमिलाती न रहें। जब आंखें गतिहीन हो जाती हैं, तो मन उसका अनुसरण करता है और प्राण की गति भी बंद हो जाती है। इससे आराम और शांति आती है।