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विशेष लेख: अपना मन तो बनाइये महोदय ट्रूडो...

ट्रूडों ने जिस मंच (संसद) का इस्तेमाल उन्होंने भारत पर आधारीहन आरोप लगाने के लिए किया, वहीं से वह देश-दुनिया को यह बताते कि वास्तव में सच्चाई क्या है और साथ ही इस बात के प्रमाण पेश करते कि इस पूरे मामले की जांच कहां तक पहुंची है और किस स्तर पर क्या हो रहा है।

कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो। Image : NIA

भारत और कनाडा के रिश्तों में गिरावट के कीर्तिमान गढ़ने वाले प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो को करीब तीन सप्ताह की 'हठ' के बाद अब लग रहा है कि दोनों देशों को यह विवाद 'निजी स्तर' पर सुलझा लेना चाहिए। मगर ट्रूडो यह भूल गए हैं कि अपने देश में निराशाजनक जनमत रेटिंग से उबरने के लिए ही उन्होंने हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में भारतीय एजेंटों की कथित संलिप्तता के बारे में सार्वजनिक तौर पर अति गंभीर बयानबाजी की थी। वही निज्जर जो खालिस्तानी कार्यकर्ता था और जिसे भारत ने आतंकवादी करार दिया था।

अब जबकि 41 कनाडाई राजनयिकों को नई दिल्ली से बाहर का रास्ता दिखाने की कवायद शुरू हो चुकी है तो ट्रूडो भारत के साथ मुद्दों को निजी तौर पर सुलझाना चाहते हैं। भारत ने तीन दर्जन राजनयिकों को अपने यहां क्यों जमे रहने दिया, यह देश से आधिकारिक तौर पर पूछा जाना चाहिए मगर इस बिंदू पर फिर कभी बात करेंगे। अभी तो सियासत की गिरावट और एक नेता की आधारहीन हरकतों पर ही बात करते हैं। उस नेता ने अपने देश की जनता ही नहीं पूरी दुनिया को दिखा दिया कि राजनीतिक कहां से कहां तक जा सकती है। बहरहाल, इस पूरे प्रकरण में जो दूसरी बात ट्रूडो भूले हैं वह यह है कि इस गड़बड़झाले का दोषी कौन है। अच्छा तो यही होता कि जिस मंच (संसद) का इस्तेमाल उन्होंने भारत पर आधारीहन आरोप लगाने के लिए किया, वहीं से वह देश-दुनिया को यह बताते कि वास्तव में सच्चाई क्या है और साथ ही इस बात के प्रमाण पेश करते कि इस पूरे मामले की जांच कहां तक पहुंची है और किस स्तर पर क्या हो रहा है।

गठबंधन के साझेदारों से 'माफी' या दक्षिण के पड़ोसी से मदद की आस का पूरा होना इतना आसान तो नहीं है। प्रधानमंत्री ट्रूडो इस अवसर का इस्तेमाल समस्या को बेहतर परिप्रेक्ष्य में देखने के लिए भी कर सकते हैं। उन्हें यह समझना चाहिए कि भारत कनाडा से स्वतंत्र भाषण और अभिव्यक्ति के सिद्धांतों को नजरअंदाज करने के लिए नहीं कह रहा। भारत तो केवल दो देशों के संबंधों के प्राथमिक मानदंडों पर चलने की मांग कर रहा है। यानी भारत कह रहा है कि चरमपंथियों के एक छोटे समूह को उन्मत्त होने और राजनयिकों तथा संपत्ति के खिलाफ हिंसा में शामिल होने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। जाहिर है कि अगर प्रधानमंत्री ट्रूडो और उनके जैसे लोग ठगों और सामान्य जीवन को बाधित करने वालों पर लगाम लगाने में असमर्थ या अनिच्छुक हैं तो द्विपक्षीय संबंधों में और गिरावट की आशंका है। इन हालात के लिए किसे दोषी ठहराया जाए और इस फिजूल की तनातनी से कौन अधिक आहत हुआ इस कवायद में पड़ना भी बेकार है।

सच तो यह है कि अगर ट्रूडो ने अमेरिका से मदद की गुहार लगाई थी और उसकी तरफ उम्मीद भरी आंखों से देखा था तो बाइडन और उनके प्रशासन को सबसे पहले जूनियर ट्रूडो को यही समझा देना चाहिए था कि अमेरिका का आतंकवाद को लेकर क्या रुख है। वही परिभाषा बता देनी चाहिए थी जो राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने रची थी। वैसे वाशिंगटन को भी अब तक इस बात पर गंभीरता से ध्यान देना चाहिए था कि उनकी सीमाओं पर क्या हो रहा है। वहां जो हो रहा है वह सिर्फ नशीले पदार्थों और मानव तस्करी में शामिल कठोर अपराधियों का मामला नहीं है बल्कि बेहतर प्रशिक्षित आतंकवाद की वास्तविक संभावना है जिसके केंद्र में बदलाव हो रहा है और जो बहुत कुछ बदलने को आतुर है।

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