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विशेष लेख: एक यात्रा के लाभ और हासिल के हिसाब पर चर्चा

पीएम मोदी की यात्रा को मुख्य रूप से उस दूरी के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए जो दोनों देशों ने दशकों में काफी कठिन और बोझिल यात्रा में तय की है।

अमेरिका यात्रा के दौरान भारत के प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति बाइडेन। Image : twitter@Narendra Modi

भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अमेरिका की राजकीय यात्रा को एक सप्ताह बीत चुका है। यात्रा से पीएम मोदी ने क्या हासिल किया और किस कीमत पर किया, इसे लेकर अब राजनेताओं, विद्वानों और मीडियाकर्मियों ने अपना मत प्रकट करना शुरू कर दिया है। अमेरिका के साथ-साथ भारत में भी इस तरह का माहौल स्वाभाविक है। धीरे-धीरे कई तरह के विचार सामने आ रहे हैं। किसने, क्या हासिल किया। यात्रा के महत्व को लगातार रेखांकित किया जा रहा है। लेकिन विचारों के इस बढ़ते प्रवाह के बीच शायद कुछ हद तक एक बात भुलाई जा रही है कि हर चीज समय लेती है। रातोंरात कुछ नहीं होता।

बात चाहे रीपर ड्रोन की खरीद-फरोख्त, सैन्य हार्डवेयर, जेट इंजन या वीजा से ही जुड़ी हुई क्यों न हो। हर एक मामले में अमेरिकी कांग्रेस को शामिल करते हुए एक प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है और हर काम को एक समय-सीमा में पूरा करना होता है। इस प्रक्रिया को तेज किया जा सकता है, जैसा कि कुछ कानून निर्माता चाहते हैं। लेकिन यह केवल एक हद तक ही संभव है। जिन मुद्दों पर सहमति बनी है, अमेरिका में सदन और सीनेट विधायक कार्यकारी स्तर पर उन्हें विस्तार से जानना चाहेंगे। ऐसे में बाइडेन प्रशासन की ओर से मिली जल्दबाजी की कोई भी आहट चीजों को धीमा ही करेगी। दरअसल, पीएम मोदी की यात्रा को मुख्य रूप से उस दूरी के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए जो दोनों देशों ने दशकों में काफी कठिन और बोझिल यात्रा में तय की है। ऐसा नहीं है कि दोनों पक्षों की आशंकाएं पूरी तरह से खत्म हो गई हैं। गलतफहमियों को दूर करने पर सीधा ध्यान दिया जा रहा है। पारस्परिक लाभ के लिए द्विपक्षीय संबंधों को सुदृढ़ करने के लिहाज से दोनों ओर से यह एक अच्छा संकेत है। किंतु अमेरिका और भारत के बीच जिस एक मसले पर खींचतान जारी रहने वाली है वह है मानवाधिकार।

अमेरिका इस मामले पर बात करेगा या प्रवचन देगा और भारत उस पर चिढ़ेगा यह बात समझी जा सकती है। दक्षिणपंथी तानाशाही को समर्थन देने के लिहाज से वाशिंगटन का ट्रैक रिकॉर्ड सर्वविदित है और वह भी व्यापक प्रमाणों के साथ। इन परिस्थितियों में आगे बढ़ने का तरीका उठाए गए मुद्दे की खूबियों पर बहस करना है न कि अल्पसंख्यकों के अधिकारों और स्थिति के बारे में पूछने पर किसी रिपोर्टर या पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति को सोशल मीडिया पर ट्रोल करना। बहरहाल, अभी एक ऐतिहासिक यात्रा के तमाम छोटे-बड़े और उजागर तथा छिपे हुए पहलुओं की पड़ताल ही चल रही है और बाराीकियों की परतें खोली जा रही हैं कि कुछ लोगों ने एक अलग ही बहस शुरू कर दी है। लोग बात कर रहे हैं कि आखिर ड्रोन या अन्य साजो-सामान के लिए भारत को क्या कीमत चुकानी होगी। इस बहस में एक इस पहलू पर भी विमर्श हो रहा है कि अगर अमेरिका मानता है कि भारत उसका एक सहयोगी है तो ये सैन्य उपकरण बिना किसी लागत के आने चाहिए! लेकिन और निसंदेह रूप से भारत यह अच्छी तरह समझता है कि मुफ्त में कुछ नहीं मिलता।  बेशक, भारत और अमेरिका के संबंधों में धैर्य ही सबसे बड़ा संबल है।

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