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तुष्टीकरण राजनीति का कैंसर है श्रीमान ट्रूडो...

यह दुर्भाग्य है और ऐसा लगता भी है कि गलतियों का पाठ जस्टिन ट्रूडो अपने पिता पियरे ट्रूडो की किताब से पढ़ रहे हैं। पियरे 1968 और 1984 के बीच 15 साल के लिए प्रधानमंत्री रहे। बस 1979 और 1980 के बीच एक छोटा ब्रेक था।

ट्रूडो ने टोरंटो में सिख समुदाय के साथ मनाया था खालसा दिवसा। Image : X/@JustinTrudeau

कनाडा के साथ भारत के संबंधों में लगातार गिरावट आ रही है। आशंका है कि बेहतर होने से पहले दोनों देशों के संबंध और खराब होंगे। ऐसे में किसी को कनाडा के प्रधानमंत्री को यह समझाने की जरूरत नहीं है कि लोकतांत्रिक समाजों की राजनीति में जीवित रहने का एकमात्र तरीका राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दीर्घकालिक उद्देश्यों की कीमत पर अल्पकालिक लाभ के जाल में फंसना नहीं है। यह दुर्भाग्य है और ऐसा लगता भी है कि गलतियों का पाठ जस्टिन ट्रूडो अपने पिता पियरे ट्रूडो की किताब से पढ़ रहे हैं। पियरे 1968 और 1984 के बीच 15 साल के लिए प्रधानमंत्री रहे। बस 1979 और 1980 के बीच एक छोटा ब्रेक था।

उस दौर में शांतिपूर्ण तरीके से कनाडा में बसे और एक सभ्य आजीविका के लिए काम कर रहे सिखों के विशाल बहुमत में से पापा ट्रूडो ने भी खालिस्तानियों के एक छोटे समूह को भी गले लगा लिया था। भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समय ट्रूडो सीनियर ने भारत विरोधी तत्वों के विरोध में खड़े होने से भी इनकार कर दिया था। इसकी कीमत 1985 में कनिष्क विमान हादसे के रूप में चुकानी पड़ी जिसमें 329 यात्रियों और चालक दल की आसमानी धमाके में मौत हो गई थी। करीब 268 कनाडाई भी समुद्र की गहराइयों में समा गये थे। और मोस्ट वांटेड की उस सूची में एक व्यक्ति ऐसा भी था जिसके बारे मे भारत ने ओटावा को चेताया था कि उसने भारतीय विमान को मार गिराने का गर्व भरा दावा किया है।

बहरहाल, जस्टिन ट्रूडो यहां बिल्कुल सही हैं जब वह कहते हैं कि अल्पसंख्यकों के दोष के लिए पूरे समुदाय को कठघरे में खड़ा करना ठीक नहीं है। आधिकारिक रूप से भारत की ओर से भी ऐसा कुछ नहीं कहा गया है। लेकिन कनाडा सहित आधिकारिक और अनौपचारिक हलकों में लगभग हर कोई कह रहा है कि खालिस्तानियों के इस छोटे समूह को बढ़ावा देना ही समस्या का मूल कारण है। यही छोटा सा समूह हिंसा और नफरत फैलाने पर आमादा है।

हिंदू-कनाडाइयों को देश छोड़ने की थमकी देने वाले और भारतीय राजनयिकों को निशाने पर लेने वाले बैनर-पोस्टर क्या कहते हैं? इस पर प्रधानमंत्री ट्रूडो का यह कहना कि यह सब बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के अंतर्गत आता है। यह क्या दर्शाता है? यह तो कनाडा के लोगों के साथ ही दुनियाभर के सभ्य समाज का सरासर अपमान है। उग्रवाद, स्वतंत्र भाषण और अभिव्यक्ति के बारे में एक ही पैमाना रखना बेतुका और अपमानजनक दोनों है।

वैसे दिल्ली में G20 के दौरान ट्रूडो की अच्छी-खासी किरकिरी हुई थी। रही-सही कसर उनके विमान की खराबी और दो दिन तक भारत में जमे रहने की विवशता ने पूरी कर दी। ऐसे में दिल्ली से अपने देश जाते वक्त उनके पास पर्याप्त वक्त था कि वह सोच लें कि जब संसद में उनके सहयोगी और देश के पत्रकार इस पूरे प्रकरण पर सवाल करेंगे तो वह क्या कहेंगे। यही नहीं, G20 के दौरान पूरी दुनिया ने देखा कि दिल्ली में विभिन्न मौकों पर जब-जब भारत के प्रधानमंत्री कनाडा के पीएम से मिले तो उस मुलाकात (आमना-सामना) में गर्मजोशी का सर्वथा अभाव था।  भारत के राष्ट्रपति की ओर से आयोजित  रात्रिभोज से भी ट्रूडो नदारद थे। दूसरी ओर आयोजन को लेकर पीएम मोदी इतने व्यस्थ थे कि शिखर सम्मेलन के एजेंडे से इतर 15 द्विपक्षीय वार्ताओं के बीच वह दो दिन के दौरान ट्रूडो से व्यक्तिगत संवाद का समय नहीं निकाल सके।

उपेक्षा और उपहास की हवाओं के बीच ट्रूडो को लगा कि खालिस्तानी समर्थकों की नजर में हीरो बनने का इससे बेहतर तरीका क्या हो सकता है कि निज्जर की हत्या का राग शुरू कर दिया जाए। आखिर खालिस्तानियों के समर्थन पर ही तो ट्रूडो की सियासी किस्मत टिकी हुई है। निज्जर की हत्या में भारत की भूमिका पर हो रहे हंगामे के बीच प्रधानमंत्री ट्रूडो को यह महसूस करना चाहिए था कि 'आरोपों' में 'सबूत' जितना दम नहीं है। तभी तो कनाडाई राजनेताओं ने अपने प्रधानमंत्री से ही आरोपों के सबूत मांगना शुरू कर दिया है। ट्रूडो को यह अहसास भी होना चाहिए था कि अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में दिखावटी सहानुभूति के अलावा बहुत कुछ नहीं हो सकता। अपने खुद के भू-राजनीतिक एजेंडे के अलावा इनमें से हर कोई नई दिल्ली के साथ खालिस्तानी मुद्दे से निपटने की कोशिश कर रहा है। लेकिन चुपचाप और जांच एजेंसियों के काम में दखल दिये बगैर।

इस पूरे प्रकरण  में श्रीमान ट्रूडो को अपने जेहन में दो बातें तो अच्छी तरह से बैठा लेनी होंगी। पहली यह कि उग्रवाद से गलबहियां करने से वह न तो कहीं के रहेंगे और न उन्हे कुछ हासिल होगा क्योंकि यह राजनीति का कैंसर है। और दूसरी बात यह है कि भारत अब 1980 के दशक का कोई देश नहीं है। भारत अब एक वैश्विक शक्ति है जो अपने बढ़ते बल के दम पर किसी को भी मुंहतोड़ जवाब दे सकता है।

(लेखक न्यू इंडिया अब्रॉड के प्रधान संपादक हैं और वाशिंगटन डीसी में उत्तरी अमेरिका तथा संयुक्त राष्ट्र के विशेष संवाददाता रह चुके हैं)

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