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आजादी की लड़ाई में भी शामिल रहे हैं पुरानी दिल्ली के ‘पतंगबाज’

भारत का शायद ही ऐसा कोई राज्य या शहर होगा, जहां 15 अगस्त के दिन जबर्दस्त पतंगबाजी होती है। वैसे तो आजादी के दिन से कई दिन पहले से लेकर रक्षाबंधन तक दिल्ली में पतंगबाजी का दौर चलता रहता है, लेकिन स्वतंत्रता दिवस पर तो पूरा आकाश पतंगों से भर जाता है और लोग इस खेल में मजे लेते नजर आते हैं।

Photo by Rh Ridoy Rhaman / Unsplash

पतंगबाजी और दिल्ली आपस में एक-दूसरे से खासे जुड़े हुए हैं। दिल्ली एक ऐसा शहर है, जहां देश की आजादी के दिन के आसपास पतंगबाजी होती है। पतंगबाजी का प्रमुख उत्सव तो हर साल 15 अगस्त को ही होता है। पतंगबाजी का संबंध देश की आजादी से जुड़ा है, जब अंग्रेजों को चिढ़ाने के लिए पुरानी दिल्ली के लोग लाल किला के ऊपर पतंग उड़ाकर उसे छोड़ देते थे और पतंगों में अंग्रेजों के खिलाफ नारेबाजी लिखते थे। दिल्ली में पतंगबाजी की परंपरा आज भी जारी है।

भारत का शायद ही ऐसा कोई राज्य या शहर होगा, जहां 15 अगस्त के दिन जबर्दस्त पतंगबाजी होती है। वैसे तो आजादी के दिन से कई दिन पहले से लेकर रक्षाबंधन तक दिल्ली में पतंगबाजी का दौर चलता रहता है, लेकिन स्वतंत्रता दिवस पर तो पूरा आकाश पतंगों से भर जाता है और लोग इस खेल में मजे लेते नजर आते हैं। कुछ साल पहले तक पतंगबाजी का प्रमुख अड्डा पुरानी दिल्ली और आसपास का इलाका हुआ करता था, लेकिन अब तो पूरी दिल्ली में खूब पतंगबाजी होती है। बताते हैं कि देश के आजाद होने से पहले तक दिल्ली में पतंगें उड़ाई जाती रही हैं और मुगलकाल में यह शौक काफी परवान चढ़ा। पुराने वक्त में पुरानी दिल्ली में ईद, शबे-बरात, बैसाखी, वसंत पंचमी, मकर संक्रांति और सावन के त्योहारों में खूब पतंगबाजी होती थी लेकिन अब लोग 15 अगस्त के आसपास ही पतंग उड़ाते हैं। यह बदलाव शायद इसलिए हुआ कि आजादी के बाद पुरानी दिल्ली में काम धंधे बढ़ने लगे थे और लोगों की व्यस्तता बढ़ गई थी, इसलिए लगातार पतंगें उड़ाने का चलन लगातार कम होता चला गया।

अंग्रेजों की गुलामी के दौर में भी पतंगबाजी परवान पर रही। इस दौरान अंग्रेजों और उनके हुक्मरानों ने पुरानी दिल्ली पर अनेकों बार अत्याचार किए। स्वतंत्रता सैनानियों को पकड़ने के लिए कई अभियान चलाए और कई बार तोड़फोड़ की गई, लेकिन पतंगबाजी होती रही। बता दें कि पुराने वक्त में अंग्रेज पुरानी दिल्ली स्थित लाल किला से ही देश चलाते थे। यह किला पुरानी दिल्ली से जुड़ा हुआ है। उस वक्त आजादी के आंदोलन में पतंग भी ‘शामिल’ होती थी। होता यह था कि जब लाल किला पर कोई बड़ा अंग्रेज आता था तो पुरानी दिल्ली के लोग अपनी पतंगों पर उसके खिलाफ नारेबाजी लिखकर उसे उड़ाते थे और अपनी पतंग को लालकिला के अंदर गिरा देते थे। जब बड़ा अंग्रेज अफसर साइमन भारत आया था और वह लाल किला में एक समारोह में शामिल हुआ था, तब लोगों ने पतंगों पर ‘साइमन गो बैक’ लिखकर उसे लालकिला में छोड़ दिया था। तब बड़ी धरपकड़ होती थी, लेकिन छतों को फांदते हुए गायब हो जाते थे।

अब पुराने जमाने की पतंगबाजी की भी बात कर लें। तब आम लोग और युवा तो पतंगबाजी में दिलचस्पी रखते ही थे, उस्ताद लोग भी इसमें अपना हुनर दिखाते थे। उस्तादों की टोलियां हुआ करती थी, जो मैदानों में पतंगों के पेच लड़ाती थी और लोगों से वाह-वाही पाती थी। आज से कुछ साल पहले तक उस्तादों और खलीफाओं के लिए लालकिला और सावड़े की मस्जिद का मैदान (शांतिवन व विजयघाट का इलाका) पतंगबाजी का स्टेडियम माना जाता था। वहां पुरानी दिल्ली के पतंगबाजी के उस्ताद आते थे। बड़े-बड़े बक्सों में पतंगे बंद होती थी जिनके कन्ने बांधने वाले उस्तादों के चेले होते थे। पतंग जब आसमान में तन जाती थी तो उस्ताद या खलीफा पेच लड़ाता था। इच्चम, खिच्चम और ढिल्लन से पेच लड़ाए जाते थे। पतंग काट दी तो इस तरफ शोर और पतंग कट गई तो उस तरफ शोर। कभी-कभी लड़ाई की नौबत भी आ जाती थी और पत्थर भी चल जाते थे लेकिन देखने वाले लोग मामले को संभाल लेते थे। पुराने वक्त में जिस उस्ताद ने अपनी पतंग से नौ पतंगें काट दी उसे नौशेरवां के खिताब से नवाजा जाता था।

पुरानी दिल्ली की छतों पर आम लोग भी खूब पतंग उड़ाया करते थे। हवेलियों, कटरों और मोहल्लों की छतों पर खूब पतंगबाजी होती थी। पतंगबाजी आशिकी का जरिया भी हुआ करती थी। पतंग में खत फंसाकर उसे माशूका की छत पर गिराने खेल किया जाता था। इस चक्कर में कई बार लड़कों की खासी पिटाई भी हो जाती थी और इलाके में बवाल मच जाता था। कटी हुई पतंग को लूटने की बात ही कुछ और थी। बांस पर झाड़ या तार लगाए हुए बच्चे और जवान सड़कों और मैदानों में भागे जा रहे हैं, किसी औरत से टकरा रहे हैं और गालियां खा रहे हैं लेकिन पतंग लूट ली तो कोई गिला नहीं, पतंग न मिली तो मांझे को ही अंटी में लपेट लिया। दिल्ली का यह पुराना शौक आज भी वहां के युवाओं पर सिर चढ़कर बोलता है। लाल कुआं से पहले भी पतंगे और मांझा खरीदा जाता था और उसे आज भी वहीं से खरीदा जा रहा है। पहले पतंग सिर्फ कागज की हुआ करती थी और उनके नाम अजीबो-गरीब हुआ करते थे। अब तो प्लास्टिक की पन्नी की पतंग का दौर भी शुरू हो चुका है।

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