भारतीय रेलवे विश्व का चौथा सबसे बड़ा रेलवे नेटवर्क है। साल 2017 में यह दुनिया का आठवां सबसे बड़ा रोजगार प्रदाता था। हम सभी जानते हैं कि औपनिवेशिक भारत में रेलवे को अंग्रेज लेकर आए थे। लेकिन हम में से बहुतों को यह नहीं पता होगा कि भारत में ट्रेनों के अंदर शौचालय लाने के लिए कौन जिम्मेदार है।
गुलाम भारत में पहली वाणिज्यिक ट्रेन साल 1853 में बॉम्बे (अब मुंबई) और ठाणे के बीच चली थी। 14 कैरिएज वाली यह यात्री ट्रेन भारत की ट्रांसपोर्ट लाइफ लाइन बनने की राह में ऐतिहासिक मील का पत्थर मानी जाती है। लेकिन तब इस ट्रेन में शौचालय नहीं हुआ करते थे। यात्री ट्रेनों में शौचालय तब लग पाए जब रेलवे नेटवर्क बंगाल, असम, आंध्र प्रदेश, गुजरात और राजस्थान तक फैल गया। इसमें पांच से छह दशक का समय लगा था।
लॉर्ड डलहौजी को अगर फादर ऑफ इंडियन रेलवेज़ माना जाता है तो फादर ऑफ टॉयलेट्स इन इंडिया का तमगा बंगाल के रहने वाले ओखिल चंद्र सेन नामक एक शख्स को दिया जाना गलत नहीं होगा। दरअसल सेन ने टूटी-फूटी अंग्रेजी में साहिबगंज डिविजनल रेलवे ऑफिस को एक पत्र लिखा था। इस पत्र में उन्होंने शौचालय न होने से यात्रियों को होने वाली समस्या का वर्णन किया था। यह पत्र साल 1909 से 1910 के बीच का है, जब पूरे देश में स्वदेशी आंदोलन और बंगाल के विभाजन के खिलाफ आंदोलन तेज थे।
पत्र में लिखा गया था, 'डियर सर, मैं यात्री ट्रेन से अहमदपुर स्टेशन आया था और मेरा पेट कटहल की तरह फूल रहा था। मैं शौच करने गया लेकिन तब तक गार्ड ने सीटी बजा दी। मैं एक हाथ में लोटा और एक हाथ में धोती पकड़ कर दौड़ रहा था। इस दौरान मैं गिर गया और प्लेटफॉर्म पर मौजूद सभी लोगों ने मुझे आपत्तिजनक हालत में देख लिया। यह बहुत बुरा है। अगर कोई यात्री शौच कर रहा है तो गार्ड को उसके लिए इंतजार करना चाहिए। इसलिए मैं आपसे गार्ड पर जुर्माना लगाने की मांग करता हूं। अन्यथा मैं इसके बारे में अखबारों में बड़ी रिपोर्ट भेजूंगा।'
सेन के इस लोट-पोट कर देने वाले पत्र ने ब्रिटिश रेल अधिकारियों को ट्रेनों में शौचालय के महत्व पर विचार करने के लिए मजबूर कर दिया। सेन के इस पत्र की एक हाथ से पेंट की गई प्रति नई दिल्ली में स्थित नेशनल रेल म्यूजियम में प्रदर्शन के लिए भी रखी गई है। इस पत्र को भारतीय रेलवे के इतिहास का एक अहम दस्तावेज माना जाता है। बता दें कि इस साल 19 नवंबर को विश्व शौचालय दिवस मनाया जाएगा।