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आधी रात को मिली आजादी, कैसा था उस वक्त भारत का माहौल

सैन्य छावनियों, सरकारी कार्यालयों, निजी मकानों आदि पर फहराते यूनियन जैक को उतारा जाना शुरू हो चुका था। 14 अगस्त को जब सूर्य डूबा तो देश भर में यूनियन जैक ने ध्वजदण्ड का त्याग कर दिया, ताकि वह चुपके से भारतीय इतिहास के भूत-काल की एक चीज बन कर रह जाए।

भारत देश को अंग्रेजों के शासनकाल से आजादी 14-15 अगस्त, 1947 की रात को मिली थी। करीब 200 साल तक भारत पर राज करने वाले अंग्रेजों को वर्ष 1947 से पहले ही यह भान हो चुका था कि इस देश को छोड़कर जाना होगा। इसके लिए पहले से ही रणनीति बनाई जाने लगी थी। भारत पाक बंटवारे का नक्शा बनना शुरू हो गया था। देशवासियों को पता चलने लगा था कि अब आजाद होने का वक्त आ गया गया है। उसके बाद आधी रात को देश के नेता जवाहर लाल नेहरू ने भारत के पहले प्रधानमंत्री पद की शपथ ली और भारत एक लोकतांत्रिक देश बन गया।

भारत आधी रात को आजाद हुआ था। आधी रात से पहले और बाद के दिन में कैसा था भारत का माहौल। देश की राजधानी में लोगों का उत्साह किस प्रकार का था और लोग क्या वाकई मान रहे थे कि वे सही मायनों में आजाद हो गए हैं। इस छोटे से माहौल की जानकारी हम आपको अंग्रेजी और हिंदी के लेखकों के माध्यम से दे रहे हैं, जिन्होंने भारत की आजादी का तफ्सील से वर्णन किया और आजादी की रात को भी अपनी किताब में उतारा। इनमें ब्रिटिश लेखक व पत्रकार लैरी कॉलिन्स और डोमिनिक लापिएरे की लिखी पुस्तक फ्रीडम एट नाइट (Freedom At Midnight) और भारत के मशहूर लेखक राजेंद्र लाल हांडा की पुस्तक 'दिल्ली में दस वर्ष' में दिल्ली की जिंदगी, सत्ता के गलियारों में हो रहे बदलावों और सामाजिक-आर्थिक पहलूओं पर काफी विस्तार से लिखा है। हम इन दोनों पुस्तकों के मुख्य अंशों के माध्यम से बता रहे हैं कि आजादी की आधी रात से पहले और बाद के दिन का माहौल कैसा था।

पुस्तकों में जानकारी दी गई है कि सैन्य छावनियों, सरकारी कार्यालयों, निजी मकानों आदि पर फहराते यूनियन जैक को उतारा जाना शुरू हो चुका था। 14 अगस्त को जब सूर्य डूबा तो देश भर में यूनियन जैक ने ध्वजदण्ड का त्याग कर दिया, ताकि वह चुपके से भारतीय इतिहास के भूत-काल की एक चीज बन कर रह जाए। समारोह के लिए आधी रात को सेंट्रल एसेंबली हाउस (आज का संसद भवन) पूरी तरह तैयार था। जिस कक्ष में भारत के वायसरायों की भव्य ऑयल-पेंटिंग्स लगी रहा करती थीं, वहां अब अनेक तिरंगे झंडे शान से लहरा रहे थे। 14 अगस्त की सुबह से ही देश के शहर-शहर, गांव-गांव में जश्न शुरू हो गया था। दिल्ली के वाशिंदे घरों से निकल पड़े। साइकिलों, कारों, बसों, रिक्शों, तांगों, बैलगाड़ियों, यहां तक हाथियों-घोड़ों पर भी सवार होकर लोग दिल्ली के केंद्र यानी इंडिया गेट की ओर चल पड़े। लोग नाच-गा रहे थे, एक-दूसरे को बधाइयां दे रहे थे।

पुस्तकों में जानकारी दी गई है कि चारों दिशाओं से लोग दिल्ली की ओर दौड़े चले आ रहे थे। तांगों के पीछे तांगे, बैलगाड़ियों के पीछे बैलगाड़ियां, कारें, ट्रकें, रेलगाड़ियां, बसें सब लोगों को दिल्ली ला रही थीं। लोग छतों पर बैठकर आए, खिड़कियों पर लटककर आए, साइकिलों पर आए और पैदल भी, दूर देहात के ऐसे लोग भी आए जिन्हें गुमान तक नहीं था कि भारत देश पर अब तक अंग्रेजों का शासन था और अब नहीं है। मर्दों ने नई पगड़ियां पहनीं, औरतों ने नई साड़ियां। बच्चे मां-बाप के कंधों पर लटक गए। देहात से आए बहुत से लोग पूछ रहे थे कि यह धूम-धड़ाका काहे का है? तो लोग बढ़-बढ़ कर बता रहे थे- अरे, तुम्हे नहीं मालूम, अंग्रेज जा रहे हैं। आज नेहरूजी देश का झंडा फहराएंगे। हम आजाद हो गए। गांव-देहात से आए लोग अपने बच्चों को आजादी का मतलब अपने-अपने हिसाब से समझा रहे थे कि अब अंग्रेज चले गए। अब कहीं आने-जाने पर रोक नहीं रहेगी।

पुस्तकों में आजादी की रात की आंखों देखी लिखते हुए जानकारी दी गई है कि रात के लगभग दो बजे स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू एसेंबली हाउस से निकलकर वायसराय भवन की ओर गवर्नर जनरल को आमंत्रित करने गए। स्वतंत्रता के उत्साह में भीड़ भी उनके पीछे-पीछे हो ली। खाली स्थान था ही नहीं और जनसमूह इतना बड़ा था कि यह पता लगाना असंभव था कि लोग किधर जा रहे हैं। कुछ देर बाद प्रधानमंत्री, गवर्नर जनरल को साथ ले हाउस में आ गए। उस समय लोगों का जोश चरम सीमा को पहुंच चुका था। नेताओं के अभिनंदन में बराबर नारे लगाए जा रहे थे। अपूर्व दृश्य, अपूर्व उत्साह, अपूर्व देशभक्ति और अपूर्व जनसमूह। हाउस में ही नहीं, उसके बाहर हरी घास पर, सड़कों पर, सेक्रेटेरियट के सामने विशाल मैदान में तिल रखने की भी कहीं जगह दिखाई न देती थी। ऐसी भीड़ तो लोगों ने प्रायः देखी होगी, पर आधी रात को किसी भी स्थान पर किसी समय दो तीन लाख आदमी इकट्ठे न हुए होंगे। दिल्ली ने अतीत में अनेक उत्सव, अनेक पर्व देखें। बड़े-बड़े चक्रवर्ती दिग्विजयी सम्राटों के समारोह देखे लेकिन अतीत के वे सभी महोत्सव उस महान पर्व के आगे फीके पड़ गए, जो दिल्ली के लोगों ने 14-15 अगस्त 1947 की रात को देखा।

जानकारी दी गई है कि नेहरू के ऐन सामने खद्दरधारियों की जो भीड़ उस भवन में ठसाठस बैठी थी, वह उस राष्ट्र की जनता का प्रतिनिधित्व कर रही थी, जिसका जन्म उस आधी रात को बस होने ही वाला था। वे तमाम प्रतिनिधि परस्पर इतने भिन्न थे, लेकिन उस भिन्नता के बावजूद अब वे इतने एक होने जा रहे थे कि अनेकता में एकता की वैसी मिसाल विश्व में अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलेगी। हाउस के बाहर आधी रात के आकाश में अचानक बिजली कड़क उठी और मॉनसूनी बारिश टूट पड़ी। भवन को चारों तरफ से हजारों भारतीयों ने घेर रखा था। वे भीगने लगे। चुपचाप, क्षण-क्षण नजदीक आ रही उस आधी रात की संभावना ने उन्हें इतना रोमांचित और तन्मय कर रखा था कि भीगने का उन्हें पता ही नहीं चल रहा था। आखिरकार आधी रात की वह टंकार शुरू हुई। जिसने एक दिन के समापन और साथ में एक युग के भी समापन की घोषणा कर दी। टंकार के दौरान कोई व्यक्ति बिल्कुल भी न हिला। फिर नेहरू के शंखनाद ने एक बड़े साम्राज्य के अंत और भारत भूमि पर एक नए युग के सूत्रपात की घोषणा कर दी।

यह भी बताया गया है कि रात तीन बजे तक शपथ-ग्रहण आदि के बाद समारोह समाप्त हो गया। कुछ लोग घरों को वापस हो लिए, बहुत से हरे लॉनों और फुटपाथों पर सो रहे। अगले दिन यानी 15 अगस्त की सुबह आठ बजे नेहरू ने लाल किले पर यूनियन जैक की जगह भारत का तिरंगा झंडा फहराया। स्थानीय पत्रों तथा सरकारी अनुमानों के अनुसार वहां 10 लाख से कम आदमी नहीं थे। दिल्ली गेट से लेकर कश्मीरी गेट तक और जामा मस्जिद से लाल किले तक कहीं सड़क या भूमि दिखाई नहीं देती थी। सिवाय एक अपार जनसमुदाय के और कुछ नहीं था। इस भीड़ को विसर्जित होने में चार घंटे लगे। सभी सड़कें प्रायः एक बजे दोपहर तक भीड़ से खचाखच भरी रहीं। जैसे ही राष्ट्र गान में पंजाब और सिंध का उल्लेख हुआ एकत्रित भीड़ में सैंकड़ों आदमियों ने सिर उठाकर एकदूसरे को देखा। वहां उपस्थित जनों को सहसा विभाजन की टीस याद आ गई जो दूसरी ओर पाकिस्तान नाम के मुल्क के रूप में मूर्त रूप ले चुकी थी और सरहदों पर हिंसा को जन्म दे चुकी थी।

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