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भारत की आजादी के उत्सव का गवाह रहा है दिल्ली का लाल किला

दिल्ली के दूरदराज के लोग एकसाथ साइकिलों पर कूच करते हुए लाल किला पहुंचते। उनकी साइकिलों के रखरखाव के लिए लोग खुद ही सेवा में लग जाते थे। दरिया गंज, शांतिवन, यमुनाबाजार में इनकी साइकिलों को खड़ा करवाया जाता था। दूसरी ओर आसपास के राज्यों के लोग भी लाल किला आते थे।

Photo by Alin Andersen / Unsplash

भारत की राजधानी नई दिल्ली के पुरानी दिल्ली स्थित लाल किला दो विपरित इतिहास का गवाह रहा है। यही वह किला है, जहां सबसे पहले अंग्रेजों ने कब्जा कर दिल्ली पर अधिकार जमाया था। दूसरी ओर यही वह किला है, जब देश के आजाद होने पर किले के प्राचीर से आजादी का उत्सव मनाया गया। यह उत्सव हर वर्ष 15 अगस्त को मनाया जा रहा है। आज हम आपको इस उत्सव के पुराने दौर में ले चल रहे हैं, जब वहां लाखों की भीड़ जुटती थी और प्रधानमंत्री के भाषण को सुनकर देश के लोग कई दिनों तक चिंतन-मनन किया करते थे। उस दौर में पूरा शहर पैदल या साइकिलों से लाल किला आता था तो आसपास के राज्यों के लोग इस उत्सव में शामिल होने के लिए बैलगाड़ी से आते थे।

वर्ष 1947 में भारत के आजाद होने से करीब 30 साल तक लाल किला पर मनाया जाने वाला उत्सव बेहद धूमधाम और उल्लास से मनाया जाता था, लेकिन अब यह महज औपचारिक रह गया है। वही पुराने दिनों की ओर आपको लिए चलते हैं। उस दौरान प्रधानमंत्री का भाषण सुनना एक राष्ट्रीय उत्सव माना जाता था। तब सुरक्षा का तामझाम नहीं हुआ करता था। जिसका जहां मन करता था, वह प्रधानमंत्री का भाषण सुनने बैठ जाता। आलम यह होता था कि वह जामा मस्जिद के बाहर के मैदान से लेकर कोड़िया पुल (लोथियान पुल) लोग ही लोग दिखाई देते थे। चांदनी चौक के दोनों ओर की सड़क पर भी हुजूम उमड़ा होता था। पुरानी दिल्ली के कटरों, मुहल्लों और गलियों के लोग एकसाथ आजादी के तराने गाते हुए लाल किला की ओर कूंच करते थे। खूब भीड़ जुटती थी और प्रधानमंत्री के आने से घंटों पहले ही वहां इकट्ठा हो जाती थी। प्रधानमंत्री के आने पर तोपों की सलामी का चलन पुराने वक्त से ही है। इन तोपों का चलते हुए देखना लोगों को खासा रोमांच पैदा करता था।

बताते हैं कि दिल्ली के दूरदराज के लोग एकसाथ साइकिलों पर कूच करते हुए लाल किला पहुंचते थे। उनकी साइकिलों के रखरखाव के लिए लोग खुद ही सेवा में लग जाते थे। दरिया गंज, शांतिवन, यमुनाबाजार में इनकी साइकिलों को खड़ा करवाया जाता था और उन्हें शर्बत आदि पिलाकर लाल किला की ओर भेजा जाता था। दूसरी ओर आसपास के राज्यों के लोग भी लाल किला आते थे। ये लोग बैल गाड़ियों से आते थे। इनकी बैलगाड़ियां उस दौरान रिंग रोड पर खड़ी कर दी जाती थी, वहां से वे लाल किला की ओर रवाना होते। इनका ध्यान रखने के लिए पुरानी दिल्ली के लोग सड़कों पर छबील लगाते थे और शर्बत आदि पिलाते थे। लोग प्रधानमंत्री का भाषण बड़ी ही तन्यमता से सुनते। लोग कई कई दिनों तक प्रधानमंत्री के भाषण को गुनते थे, उस पर विचार करते थे और अपनी तरह के मतलब निकालते थे। चौराहों, पेड़ों के नीचे, घरों के बाहर बैठकर लोग उस भाषण पर चर्चा करते थे और उनमें अगर कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति होता था तो उससे मतलब पूछा करते थे। प्रधानमंत्री के भाषण के बाद बाजार खुल जाते थे।

इस उत्सव में ग्रामीण व दूरदराज की महिलाओं की भागीदारी भी गजब होती। वे भी पुरानी दिल्ली की ओर कूच करती। इनमें बुजुर्ग महिलाएं लालकिला पहुंच जाती तो बाकी जनाना पार्क (सुभाष पार्क के सामने पर्दा बाग) में रुक जाती। वहीं पर ही पूरा दिन बिताया जाता। खाना पीना होता। लोक-गीतों का दौर चलता। बच्चे खूब खरीदारी करते। उनके लिए रंगबिरंगे मिट्टी के खिलौने, पक्षियों और जानवरों के रूप में बनी मिठाइयां, सारंगी, बांसुरी, तड़तड़ गाड़ी खरीदी जाती। महिलाएं पुरानी दिल्ली के बाजारों से खरीदारी भी कर लेती। लाल किला पर उमड़ा हुजूम बाजारों में घुस जाता था। वहां चाट-पकौड़ी खाई जा रही है और आजादी के दिन को उत्सव की तरह मनाया जा रहा है। इन बाजारों में देहात के लोग देर शाम तक खरीदारी करते थे और फिर बैल गाड़ियों में खरीदा हुआ सामान लादकर अपने गांवों की ओर रवाना हो जाते थे।

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