आज पुरानी दिल्ली के अधिकतर इलाके कमर्शल हो चुके हैं। वहां के रिहायशी इलाके धीरे-धीरे सिमटते जा रहे हैं। अपार भीड़ और बाहरी लोगों की आमद अब पुरानी दिल्ली की पहचान बनती जा रही है। सुविधाओं की कमी व अन्य कारणों के चलते इस वॉल्ड सिटी के वाशिंदे दिल्ली के दूसरे इलाकों में बसने के लिए निकलते जा रहे हैं। अब तो बस नाम को ही यह इलाका पुरानी दिल्ली रह गया है। लेकिन कभी वो भी दिन थे, जब पुरानी दिल्ली एक ऐतिहासिक शहर की तरह अंगड़ाई लेती थी। दिन-भर यहां की रवायत गली, कूंचों में नजर आती और रात यहां पर अलग ही नजारे पेश करती। ऐसी ही पुरानी दिल्ली के दीदार हम आपको आज करवाते हैं।
पुरानी दिल्ली में बड़ा बदलाव 1980 के दशक तक आते आते शुरू हो गया था। वरना उससे पहले और मुगलकाल तक उसमें कोई खासा बदलाव नहीं हुआ था। कभी वह दौर था कि अलसुबह ही यहां जगार हो जाती। मंदिरों से आरती और घंटे-घड़ियाल गूंजते तो मस्जिदों से अजान सुनाई देती। सूरज निकलने से पहले ही लोगों की दिनचर्या शुरू हो जाती। महिलाएं समूह बनाकर भजन गाते हुए यमुना नदी में नहाने के लिए निकल जाती तो दूसरी ओर इलाके के लड़के पहलवान बनने के लिए अखाड़ों की ओर रुख कर लेते। घरों में अंगीठी-चूलहे जल जाते। किसी घर में नाश्ता बन रहा होता तो कभी परिवार का कोई सदस्य पास के हलवाई के पास बेड़मी-पूरी-सब्जी और हलवा लेने के लिए जाता दिखाई देता। पुरानी दिल्ली की यह विशेषता रही है कि यहां की बड़ी गलियों में नीचे तो दुकानें होती, ऊपर उनके मालिक निवास करते। इनमें चांदनी चौक, भागीरथ प्लैस, दरीबा कलां, बल्लीमारान, फतेहपुरी, खारी बावली जैसे प्रमुख इलाके शामिल हैं।

पुराने दौर में इन इलाकों में सुबह जल्दी दुकानें खुल जातीं, क्योंकि घर तो ऊपर ही होता था। पूरे दिन इन इलाकों में कारोबारी गतिविधियां चलती रहतीं। शाम ढलते ही दुकानें बंद हो जाती, लेकिन आपको हैरानी होगी कि यह इलाके एक बार फिर से गुलजार हो जाते। इन इलाकों के हलवाइयों की दुकानों पर असली काम तो रात को ही शुरू होता। वहां की पहली मंजिल पर बने घरों से परिवार नीचे आते और बाजार में खाना-पीना करते। बाजार में लड़कों के समूह भी घूमते नजर आते। लेकिन मजाल की कोई हंगामा हो, कारण यह था कि बाजार में घूमने वाले अधिकतर लोग एक-दूसरे को या उसके परिवार-खानदान की जानकारी रखते थे। इसलिए बाजार में अपनेपन का सलीका दिखाई देता।

उस दौर में रात को हलवाई की दुकान पर जाकर दूध पीना और पनवाड़ी की दुकान पर पान खाना लोगों की आदतों में शुमार था। रात को ही बाजार में फल-सब्जी बेचने वाले भी आ जाते तो बच्चों के खिलौनों को बहंगी पर लादे हुए लोग खिलौने बेचते। सालों पुरानी दिल्ली इसी रवायत पर जीता रहा। पुरानी दिल्ली के कटरों, कूचों और गलियों का आलम दूसरे प्रकार का नजर आता था। ये इलाके दिनभर अलसाए से रहते क्योंकि कामकाजी लोग तो निकल जाते। वहां दिन भर औरतें और बच्चे दिखते। गर्मियों में औरतें घरों में आराम फरमाती तो सर्दियों में बाहर धूप में स्वेटर बुनती नजर आती। बच्चों की धमाचौकड़ी चलती रहती। वे किसी न किसी खेल में लगे रहते।

आजादी के बाद और पुरानी दिल्ली के ‘बदलने’ से पहले रविवार या अवकाश के दिन वहां के परेड ग्राउंड, गांधी मैदान, कंपनी बाग, रामलीला मैदान, एडवर्ड पार्क (सुभाष पार्क) में युवाओं की भीड़ जुटा करती। वहां सामान्य घरों के लड़के गिल्ली डंडा, कबड्डी की पालियां जमाते या कंचे की टीक खेलते। दूसरी ओर रईसों के बच्चे क्रिकेट, हॉकी या फुटबॉल खेलते दिखते। इन मैदानों में जब तब पतंगबाजी भी करते दिखाई देते थे लड़के। अब इन सरकारी मैदानों पर सरकारी ‘कब्जा’ हो चुका है। अब तो पुरानी दिल्ली के युवा दिल्ली व देश के अन्य युवाओं की तरह ऑनलाइन गेम्स खेलकर अपना दिल बहला लेते हैं।