ऐसे समय में जब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में मतदान के जरिए रूस की निंदा न करने के लिए पश्चिमी देशों को भारत से नाराज माना जा रहा था, भारत ने एक तरह से राहत प्रदान की है। दरअसल, हाल ही में इस पर मतदान हुआ था कि क्या यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमिर जेलेंस्की को वर्चुअल माध्यम से परिषद को संबोधित करने की अनुमति दी जानी चाहिए या नहीं। भारत ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया और कहा है कि जेलेंस्की परिषद को संबोधित कर सकते हैं।

रूस ने इस बात पर जोर दिया कि 15 सदस्यीय संगठन को प्रक्रिया के तहत काम करना चाहिए और प्रस्ताव के विरोध में मतदान करने वाला वह अकेला देश रहा। वहीं, रूस का मित्र चीन ने मतदान से दूरी बनाए रखी। वर्तमान परिस्थितियों को देखें तो भारत रूस के इस प्रस्ताव का समर्थन नहीं कर सका कि जेलेंस्की परिषद को संबोधित करने के लिए खुद न्यूयॉर्क आएं।
हालांकि, मॉस्को का कहना है कि हम जेलेंस्की के परिषद में संबोधन देने के खिलाफ नहीं हैं। रूस कहता है कि हम केवल यह चाहते हैं कि स्थापित नियमों का पालन किया जाना चाहिए। लेकिन यूक्रेन और रूस के बीच युद्ध की वजह से जो असाधारण परिस्थिति बनी हैं उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।

इस मामले पर भारत के रुख की बात करें तो ऐसा नहीं है कि इसे लेकर भारत के नजरिए में कोई बहुत बड़ा बदलाव आया है। जब से इस संघर्ष की शुरुआत हुई है तब से ही भारत युद्ध को खत्म करने और बातचीत के जरिए विवाद का हल ढूंढने की अपील करता आया है। भारत इस बात को स्वीकार करता रहा है कि अंतरराष्ट्रीय कानूनों के खिलाफ अपने राजनीतिक हित के लिए आक्रामकता या सीमा को बदलने का एकतरफा प्रयास कभी स्वीकार नहीं किए जा सकते। नई दिल्ली ने शुरुआत से ही दोनों पक्षों से वार्ता की मेज पर बैठने की अपील की है। इसके साथ ही भारत ने एकतरफा प्रस्तावों का समर्थन करने से लगातार इनकार किया है।
सुरक्षा परिषद में जेलेंस्की की टिप्पणियां वही रहीं जिनकी उम्मीद थी कि रूस को यूक्रेन के खिलाफ अपराधों के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। रूस ने जपोरिजिया न्यूक्लियर कॉम्प्लेक्स पर हमला करके दुनिया को एक परमाणु तबाही की कगार पर ला दिया जिसके छह रिएक्टर वार जोन में हैं। इसके अलावा हर मौके पर कीव ने मानवता के खिलाफ अपराधियों और नागरिकों की हत्या करने का मुद्दा उठाया है। इसके जवाब में रूस यूक्रेन पर आरोप लगाता रहा है।
रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का यह विशेष सैन्य अभियान सातवें महीने में प्रवेश कर चुका है और इसका अंत अभी भी दिखाई नहीं दे रहा है। इस तरह के संघर्ष में दोनों पक्षों को ही भारी नुकसान उठाना पड़ता है। पश्चिमी खुफिया सूत्र अक्सर रूस के लिए एक निराशाजनक तस्वीर दिखाते हैं जो इस युद्ध को लगभग एक दशक तक चले अफगानिस्तान में संघर्ष जैसा बता रहे हैं। वर्तमान परिस्थिति में भी माना जा रहा है कि रूस और यूक्रेन के बीच यह संघर्ष लंबे समय तक चलने वाला है।
इस बात में कोई शक नहीं है कि इस युद्ध ने बड़ी संख्या में लोगों की जान ले ली हैं और संपत्तियों का नुकसान किया है। इसके सैन्य नजरिए से यूक्रेन को पश्चिमी देशों, खास तौर पर अमेरिका से भारी मात्रा में हथियार मिल सकते हैं लेकिन आर्थिक रूप से वह तबाही की कगार पर खड़ा है। इससे उबरने में उसे दशकों का समय लग सकता है। दूसरी ओर रूस के लिए भी हालात कुछ बहुत अलग नहीं हैं। दो ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था वाले रूस को सख्त आर्थिक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा है।
अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों की ओर से लगाए गए प्रतिबंधों ने ईरान, उत्तर कोरिया, सीरिया और म्यांमार जैसे देशों को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। लेकिन असली सवाल यह है कि क्या इन देशों में राजनीतिक दिग्गज भी उतने ही प्रभावित हुए हैं जितना एक आम व्यक्ति हुआ है।
इसके साथ ही यूक्रेन में चल रहे इस युद्ध ने संयुक्त राष्ट्र की प्रभावशीलता को एक बार फिर बढ़ा दिया है। असल में कुछ ने इस अवसर का इस्तेमाल एक नए अंतरराष्ट्रीय संगठन के लिए आवाज उठाने में किया है जो संयुक्त राष्ट्र जैसा ही होगा लेकिन उसमें किसी के पास कोई वीटो पावर नहीं होगी। तर्क दिया जा रहा है कि शुरुआत में लोग इसमें रुचि नहीं दिखाएंगे लेकिन बाद में सभी इसमें शामिल होंगे जैसा कि संयुक्त राष्ट्र के साथ हुआ था जो 52 सदस्य देशों के साथ शुरू हुआ था और अब उसके लगभग 193 सदस्य हैं।
लेकिन इस बात की गारंटी कहां है कि यह नया संगठन भी किसी विवाद में नहीं फंस जाएगा? स्पष्ट रूप से एक दुर्लभ तरीके की राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है और यह पुतिन और जेलेंस्की दोनों के लिए अहम और बड़े होने की धारणाओं को पीछे छोड़ते हुए सही कदम उठाने का समय है।