असल में पुराने शहर में दशहरा के बाद ही दिवाली को लेकर सरगर्मी शुरू हो जाती थी। घर की मरम्मत करने, सजाने से लेकर कई काम ऐसे थे जो दिवाली से पहले किए जाने जरूरी थे। खरीदारी भी बड़ा काम होता था, क्योंकि आज की तरह एक ही जगह से सारा सामान नहीं मिल पाता था। इसके अलावा दर्जी के पास जाकर कपड़े सिलवाना भी बड़ा काम हुआ करता था, क्योंकि सबको नए कपड़े पहनने होते थहै। यह कार्य दिवाली तक चलता रहता। कुछ अलग ही सरगर्मी और उजास लेकर आती थी दिवाली। दीपावली के दिन कटरों, मुहल्लों के लोग उसे मनाने के लिए सुबह से ही कामकाज शुरू कर देते थे।
तब हर किसी के जिम्मे काम बांट दिए जाते। किसको बाग में जाकर आम के पत्ते तोड़कर लाने हैं, कौन बाजार से फूल लाएगा, ताकि इन सबकी मालाएं बनाकर घर के दरवाजों पर लगा दी जाए। सजाने का काम लड़कियों का होता था और घर के लड़के उनकी मदद करते थे। इस बात की भी जांच-परख कर ली जाती थी कि दीयों में पानी में डालकर उन्हें कौन सुखाएगा। घर में पूजा के लिए उपले, अन्य सामग्री मौजूद है। अगर नहीं है तो उसे पंसारी की दुकान से सुबह ही मंगा लिया जाता था, ताकि शाम के बाद किसी प्रकार का झंझट न रहे।