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विशेष: सुप्रीम कोर्ट का फैसला समानता और मेरिट के लिए झटका

अमेरिका में नस्लीय आधार पर विश्वविद्यालयों में दाखिले की परंपरा पर रोक के सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले को कुछ लोग मेरिटोक्रेसी की जीत बता रहे हैं। हालांकि करीब से गौर करने से पता चलता है कि यह फैसला उतना फायदेमंद है नहीं, जितना दिखाई दे रहा है।

सांकेतिक तस्वीर Photo by Brooke Cagle / Unsplash

इंद्रनील बसु रे
@ibasuray

अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में ऐतिहासिक फैसला देते हुए नस्लीय आधार पर विश्वविद्यालयों में दाखिला देने की परंपरा पर रोक लगा दी है। इस परंपरा को असंवैधानिक करार देकर अदालत ने उस व्यवस्था को समाप्त कर दिया है जिसका उपयोग देश के सबसे चुनिंदा स्कूल अपने परिसरों में विविधता लाने के लिए करते रहे हैं। कुछ लोग इस फैसले को मेरिटोक्रेसी की जीत के रूप में देख रहे हैं। हालांकि करीब से गौर करने से पता चलता है कि यह फैसला उतना फायदेमंद है नहीं, जितना दिखाई दे रहा है।

इंद्रनील बसु रे। फोटो फेसबुक

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने राष्ट्रव्यापी बहस छेड़ दी है। कई लोगों का तर्क है कि यह मेरिट के आधार पर होने वाले दाखिलों से दूर कर देता है। यह ऐसा निर्णय है जो अल्पसंख्यक छात्रों की उन बाधाओं की अनदेखा करता है जिनका सामना वह कम संसाधन वाले स्कूलों में दाखिलों से लेकर भेदभाव के दौरान करते हैं। ये बाधाएं प्रतिभाशाली और कड़ी मेहनत करने वाले छात्रों को भी पूरी क्षमता से काम करने में बाधा बन सकती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इन वास्तविकताओं की अनदेखी की है। उसके फैसले से उच्च शिक्षा की एक ऐसी व्यवस्था बनने का खतरा पैदा हा गया है जो निष्पक्षता, विविधता में तो कमजोर है ही, साथ ही देश की आबादी के हिसाब से भी उचित प्रतिनिधित्व नहीं बनाती।

प्रमुख भारतीय अमेरिकी नागरिकों और संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को लेकर अपनी चिंताएं जाहिर की हैं। नागरिक अधिकार समूह और तमाम भारतीय अमेरिकी इसकी व्यापक आलोचना कर रहे हैं। उन्हें डर है कि इसकी वजह से उच्च शिक्षा में अल्पसंख्यकों के लिए प्रतिनिधित्व और अवसर कम हो जाएंगे। यह सामूहिक आक्रोश सभी के लिए न्याय, समानता और निष्पक्षता के सिद्धांतों को बनाए रखने के भारतीय अमेरिकियों के दृढ़ संकल्प और प्रतिबद्धता को रेखांकित करता है। लेकिन इस फैसले का दूसरा पहलू यह है कि अगर केवल मेरिटोक्रेसी पर विचार किया जाएगा तो योग्य भारतीय छात्र हार्वर्ड जैसे संस्थानों में ही आएंगे, जिन्हें सकारात्मक कार्रवाई की वजह से प्रवेश से वंचित करके इस कानून की बदौलत कम सक्षम छात्रों को प्रवेश दिया जा रहा था।

मेरिटोक्रेसी कॉलेज के दाखिलों और नौकरी में मानक होना चाहिए। यह एक सिद्धांत है जो किसी की पृष्ठभूमि या पहचान को तवज्जो दिए बिना मेहनती और प्रतिभाशाली लोगों को पुरस्कृत करता है। हालांकि मेरिटोक्रेटिक प्रणाली को उन संस्थागत बाधाओं को भी स्वीकार करके समाधान करना चाहिए जो कुछ समूहों को उनकी पूरी क्षमता हासिल करने से रोकते हैं। इसमें वंचित छात्रों को सहायता व संसाधन प्रदान करना, उच्च शिक्षा व कार्यस्थल में विविधता लाना और समावेशिता को बढ़ावा देने वाली नीतियां लागू करना शामिल है।

सकारात्मक नीतियों के बावजूद अमेरिका में नेतृत्वकारी पदों पर श्वेतों का वर्चस्व है। गार्टनर के 2021 के सर्वेक्षण के अनुसार, कुल आबादी का 60.1% होने के बावजूद श्वेत सभी वरिष्ठ नेतृत्व पदों में से 59% में बैठे हैं। उनके पास बोर्ड के निदेशक पदों में से 73% और सीईओ पदों में से 84% हैं। ये आंकड़े बताते हैं कि सकारात्मक कार्रवाई की नीतियां पर्याप्त प्रभावी नहीं रही हैं।

मेरिटोक्रेसी की अवधारणा निष्पक्ष और न्यायपूर्ण समाज की आधारशिला होनी चाहिए। यह ऐसी व्यवस्था है जहां व्यक्तियों को उनकी क्षमता और प्रतिभा के आधार पर चुना जाता है और आगे बढ़ाया जाता है। हालांकि वास्तविकता यह है कि हम एक ऐसे समाज में रहते हैं, जहां अवसर समान रूप से नहीं दिए जाते। जहां व्यवस्थागत पूर्वाग्रह और बाधाएं अभी तक मौजूद हैं। ऐसे संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट का फैसला अनजाने में ही इन असमानताओं को दूर करने के बजाय उन्हें बढ़ावा देने का आधार बन सकता है।

इसके सबसे ज्वलंत उदाहरणों में से एक विरासत कोटा प्रणाली है, जो विश्वविद्यालय के पारिवारिक संबंधों वाले आवेदकों के लिए एक अधिमान्य प्रवेश नीति है। यह नीति श्वेत छात्रों को अत्यधिक लाभ पहुंचाती है। यह समाज में मौजूद विशेषाधिकार की याद दिलाती है। तीन नागरिक अधिकार समूहों ने इसके खिलाप एक शिकायत भी दाखिल की है। इसके अनुसार, दाताओं या पूर्व छात्रों के साथ पारिवारिक संबंधों वाले हार्वर्ड आवेदकों में से लगभग 70% श्वेत हैं। अन्य आवेदकों की तुलना में उन्हें दाखिला मिलने की संभावना लगभग छह गुना है। कहने का मतलब ये कि यह मेरिटोक्रेसी नहीं है, यह तो विशेषाधिकार का स्थायीकरण है।

दाखिलों में दान की भूमिका की भी जांच होनी चाहिए। इसे प्रवेश का मानदंड नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि यह विशेषाधिकार को बढ़ावा देता है और योग्यता के सिद्धांत को कमजोर करता है। विश्वविद्यालयों को छात्रों को उनकी क्षमताओं के आधार पर दाखिला देने पर ध्यान लगाना चाहिए, न कि उनके माता-पिता के बैंक खातों के आकार के आधार पर।

सकारात्मक कार्रवाई की कमियों का एक संभावित समाधान आर्थिक कोटा प्रणाली का कार्यान्वयन भी है। यह प्रणाली आर्थिक रूप से वंचित पृष्ठभूमि के छात्रों को प्राथमिकता देगी, चाहे उनकी जाति या जातीयता कुछ भी हो। इस दृष्टिकोण का उपयोग भारत में किया गया है, जहां जाति आधारित आरक्षण नीतियां लागू हैं। हालांकि कई लोग तर्क देते हैं कि इन नीतियों को असमानताओं को बेहतर ढंग से संबोधित करने और सामाजिक गतिशीलता को बढ़ावा देने के लिए आर्थिक स्थिति पर आधारित होना चाहिए।

यही सिद्धांत अमेरिका पर भी लागू होता है। एक आर्थिक कोटा प्रणाली आर्थिक असमानता की खाई को पाटने में मदद कर सकती है और सभी पृष्ठभूमि के छात्रों के लिए अवसर प्रदान कर सकती है। यह सुनिश्चित करेगा कि सभी छात्रों को उनकी आर्थिक स्थिति देखे बिना सफल होने का समान अवसर मिले।

सकारात्मक कार्रवाई पर बहस अभी खत्म नहीं हुई है। यह एक जटिल मुद्दा है जिसके लिए सावधानीपूर्वक विचार करने और विचारशील समाधान खोजने की आवश्यकता है। हालांकि एक बात स्पष्ट है कि मेरिटोक्रेटिक व्यवस्था को न केवल प्रतिभाओं और मेहनती लोगों को पुरस्कृत करना चाहिए बल्कि प्रणालीगत बाधाओं को भी स्वीकार करके संबोधित करना चाहिए जिनकी वजह से कुछ समूह अपनी पूरी क्षमता तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। यह महत्वपूर्ण है कि हम एक ऐसी व्यवस्था बनाने के प्रयास करना जारी रखें जो न केवल मेरिटोक्रेटिक हो बल्कि निष्पक्ष और समावेशी भी हों। तभी हम सुनिश्चित कर सकते हैं कि सभी छात्रों को उनकी पृष्ठभूमि की परवाह किए बिना सफल होने का समान अवसर मिल पाएगा।

(लेखक एक कार्डियक इलेक्ट्रो फिजियोलॉजिस्ट और टेनेसी के मेम्फिस स्थित कार्डियोलॉजी व पब्लिक हेल्थ विभाग में प्रोफेसर हैं। साथ ही अमेरिकन एकेडमी फॉर योगा इन मेडिसिन के संस्थापक अध्यक्ष भी हैं।)

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