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स्वतंत्रता की ही नहीं, अब विकास व अन्य मसलों पर लगातार बात करें हम

अमेरिका को आजाद हुए 246 साल हो चुके हैं, कनाडा 155 साल पहले स्वतंत्र हो चुका था तो अजेंटीना ने 206 साल पूर्व अपने का आजाद कर लिया। इन देशों ने तरक्की की लेकिन उन्हें पर्याप्त समय मिला है। भारत को आजाद हुए 75 वर्ष हुए हैं। संतोष यह है कि उसने कम समय के बावजूद कुछ मामलों में इन देशों को टक्कर दी है।

भारत देश अपनी आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है। अगर वर्षों को लेकर अन्य देशों की आजादी से भारत की आजादी की तुलना करें तो उस हिसाब से इस तथ्य को मानने को कोई दो-राय नहीं है कि भारत ने कई मोर्चों पर सम्मानजनक तरक्की की है और विकास के पहिए को तेजी से घुमाने का प्रयास किया है। आधुनिक तकनीक का सहारा लेकर भारत सरकार इस प्रयास में जुटी है कि अन्त्योदय (गरीबी के आखिरी पायदन) तक लोगों को सुविधाएं मिलें। लेकिन इस बात में भी दो राय नहीं है कि जनहित के लिए अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।

सबसे पहले हम आजादी को लेकर कुछ तुलना करें। अमेरिका को आजाद हुए 246 साल हो चुके हैं तो ईरान 520 साल पहले आजाद हो चुका है। कनाडा 155 साल पहले स्वतंत्र हो चुका था तो अजेंटीना ने 206 साल पूर्व अपने का आजाद कर लिया था। इनमें अधिकतर देशों ने खूब तरक्की की है, लेकिन उसके लिए उन्हें पर्याप्त समय मिला है। भारत को आजाद हुए 75 वर्ष हुए हैं और यह कम बड़ी बात नहीं है कि उसने भी इतने कम समय में विकास के कुछ मामलों में इन देशों को टक्कर दी है। जो देश भारत के आगे-पीछे आजाद हुए हैं, उनमें से अधिकतर आज भी कई समस्याओं से जूझ रहे हैं, लेकिन शुक्र है कि भारत में ऐसा नहीं हो रहा कि यहां विद्रोह के हालात हो जाएं या अर्थव्यवस्थ बुरी तरह चरमरा जाए।

इन सबके बावजूद भारत आज भी विकास व अन्य मसलों पर जूझ रहा है। कई ऐसे मुद्दे हैं जो जब-तब नासूर बनकर भारत की छवि को नुकसान पहुंचा जाते हैं। सांप्रदायिक सौहार्द भी कुछ राज्यों में जब-तब डूब-उतराता रहता है। लेकिन यह बात भी कम गर्व की नहीं है कि पिछले 75 सालों ने देश ने तरक्की भी खूब की है। विज्ञान व प्रौद्योगिकी, साक्षरता के मोर्चे पर भारत ने चमत्कारिक विकास किया है तो रक्षा, आर्थिक विकास सहित बिजली व सड़कों के मसले पर अभूतपूर्व तरक्की हुई है। कोरोन महामारी ने भारत को जख्म तो दिए हैं, लेकिन इस महामारी से भारत जैसे निपटा है और टीके लगाने को लेकर जो नेटवर्क बनाया है, वह किसी भी विकासशील देश को हैरानी में डाल रहा है।

भारत विश्व का बड़ा लोकतांत्रिक देश है। देश जब से आजाद हुआ है, तब से यहां लोकतंत्र कभी कभी व्यथित तो हुआ है, लेकिन बिखरा नहीं है। राजनैतिक दल जीतते हैं और आसानी से सरकार बना लेते हैं। उथल-पुथल तो हुई हैं लेकिन इसके चलते लोकतंत्र की आत्मा कभी भी गहराई से आहत नहीं हुई है। वरना तो अमेरिका में ट्रंप ने राष्ट्रपति शासन छोड़ने से इनकार तक कर दिया था। वैसे इमरजेंसी का काल छोड़ देँ तो भारत में कभी भी इस प्रकार के विद्रोह का सामना नहीं करना पड़ रहा है। उम्मीद यही करते हैं कि भारत में लोकतंत्र लगातार मजबूती बनाता रहेगा और यही लोकतंत्र उसे आर्थिक व सामाजिक मजबूती भी प्रदान करेगा।

इन सबके बावजूद भारत में भ्रष्टाचार एक नासूर बनता जा रहा है। गरीबों तक योजनाएं पहुंचाने में सरकार ने कितनी भी आधुनिक तकनीक का सहारा लिया, सरकारी कार्यालयों में सिस्टम को बदला और योजनाओं को कितना भी पारदर्शी बनाने का प्रयास किया, भ्रष्टाचार पर अभी तक गंभीर अंकुश नहीं लग पा रहा है। यह समस्या अभी की नहीं है। जब से भारत आजाद हुआ है, विकास के साथ भ्रष्टाचार समानान्तर रूप से बढ़ा चला आ रहा है। भारतीय साहित्य भी इस समस्या को बताकर सवाल खड़े करता रहा है। साल 1967 में श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास राग दरबारी हो या 1979 में मन्नू भंडारी का उपन्यास महाभोज। इसके अलावा 21वीं सदी में लिखे गए अनेक विवरण और भ्रष्टाचार के खुलासे। कोई भी सरकार प्रभावी रूप से इसे रोक नहीं पा रही है। लेकिन हम उद्विग्न या निराश होकर प्रलाप नहीं कर सकते। अच्छी बात यह है कि भारत व राज्य सरकारों को यह बात अच्छी तरह समझ आ चुकी है कि विकास बढ़ाने के लिए  भ्रष्टाचार रोकना जरूरी है। हम संतुष्ट हो सकते हैं कि भ्रष्टाचार को रोकने के गंभीर प्रयास चल रहे हैं।

कुछ बातों या मसलों पर मिट्टी डाल दी जाए तो भारतवासी मान सकते हैं कि वे सही मायनों मे आजाद हो चले हैं। लेकिन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा है कि आजादी का कोई अर्थ नहीं है यदि इसमें गलतियां करने की आजादी शामिल न हों। गांधी जी का कहना सही माना जा सकता है, लेकिन हम यह भी कह सकते हैं कि बार-बार की गलती उच्छृंखलता बन जाती है और वह समाज को तोड़ने का प्रयास करती नजर आती है। सांप्रदायिक वैमनस्य जिस तरह से सिर उठा लेता है, वह गंभीर सोच का विषय है। वैसे हम भारत विभाजन और आजादी का लिटरेचर पढ़े तो पता चलता है कि उस दौरान भी सांप्रदायिक सद्भाव छिन्न-भिन्न हो गया था, लेकिन बाद में सब संभल गया। यानी ऐसे दौर आएंगे, छाएंगे और शांत हो जाएंगे।

तो फिर हमें क्या करना होगा। अमीर-गरीब के बीच की खाई लगातार बढ़ रही है। बेरोजगारी सुरसा की तरह मुंह उठा रही है और सीमापार से जुड़ा अंदरुनी आंतकवाद भी दुख दे रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि ऐसे मसलों पर भारत सरकार को मजबूती दिखाए, अपने रुख को बिना भेदभाव के कड़ा करे और संतुष्टिवाद से बचे। वैसे सरकार ये सब कर भी ले तो इस बात को समझना होगा कि हम लोगों को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। विकास में अहम योगदान देना होगा, भ्रष्टाचार से खुद को बचाना हेागा और योजनाओं मे भेदभाव का आरोप लगाकर रुदाली-रुदन से बचना होगा। विश्व के किसी भी देश को देख लीजिए, वहां विकास तब ही सरपट दौड़ा है, जब लोगों ने गंभीर भागीदारी दिखाई है। उम्मीद करते हैं कि भारत में भी ऐसा होगा। तभी हम आजाद कहलाएंगे, हर मायने में।

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