हिंदी पत्रकारिता के वरिष्ठ व मूर्धन्य पत्रकार डॉ. वेदप्रताप वैदिक का मंगलवार सुबह निधन हो गया। वह 78 वर्ष के थे। इस उम्र में भी वह लेखन में एक्टिव थे और रोजाना देश के अनेकों अखबारों, वेबवाइट आदि में उनके कॉलम व लेख प्रकाशित हो रहे थे। भारत के एक छोटे से शहर में जन्मे डॉ. वैदिक हिंदी भाषा और भारतीय प्रवासियों के कायल थे। उनका कहना था कि हिंदी विश्व की भाषा बनकर रहेगी और भारतीय प्रवासी जिस भी देश में गए, वहां जाकर उन्होंने हर क्षेत्र में अपना सिक्का जमाया है। इस समय दुनिया के ऐसे दर्जन भर से ज्यादा देश हैं जिनके राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, न्यायाधीश आदि भारतीय मूल के हैं। डॉ. वैदिक इस लेखक के भी शिक्षक रहे हैं।
मंगलवार सुबह जब डॉ. वैदिक अपने गुरुग्राम स्थित आवास के बाथरूम में नहाने गए थे तो वहीं उन्हें हार्ट अटैक आ गया। काफी देर तक जब वह बाहर नहीं आए तो सहायक ने जैसे-तैसे दरवाजा खोला। उन्हें अस्पताल ले जाया गया, लेकिन उनकी सांसें थम चुकी थीं। डॉ. वैदिक का व्यक्तित्व गजब था। पत्रकारिता के अलावा राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति, हिंदी के लिए गंभीर संघर्ष, विश्वभर की घुमक्कड़ी, प्रभावशाली वक्ता के रूप में उनका प्रदर्शन शानदार रहा। मध्यप्रदेश के इंदौर शहर में जन्मे डॉ. वैदिक का पत्रकारिता का सफर काफी लंबा रहा। उन्होंने अपनी पीएचडी के शोधकार्य के लिए न्यूयॉर्क, मास्को, लंदन से लेकर अफगानिस्तान तक में अध्ययन व शोध किया। वह रुसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत भाषा के भी ज्ञाता थे। उन्होंने अपनी पीएचडी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) से की थी, इसके बावजूद उनके विचार खासे आधुनिक, वैदिक व राष्ट्रवादी थे।
यह लेखक जब 30 साल पहले भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC) में हिंदी पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा था, तब डॉ. वैदिक लगातार वहां पढ़ाने आते थे। वह अंतरराष्ट्रीय मुद्दों और मीडिया पर खूब चर्चा करते थे और अफगानिस्तान के बारे में इतनी बारीक जानकारी देते थे कि लगता था कि शायद वहीं के नागरिक हैं। उस वक्त भी वह हिंदी की लगातार प्रशंसा करते थे और कहते थे कि वह दिन जरूर आएगा, जब हिंदी का उसका सम्मान मिलेगा और अंतरराष्ट्रीय मंच पर उसकी विशेष पहचान बनेगी। उनका कहना सही रहा। आज हिंदी वाकई में देश-विदेश में प्रभावी भाषा के अलावा रोजगार की भाषा भी बनती जा रही है। अमेरिका स्थित वाशिंगटन डीसी में सांस्कृतिक राजनयिक व भारतीय संस्कृति के शिक्षक रहे डॉ. मोक्षराज के अनुसार पांच वर्ष पूर्व विदेश में एक ऑनलाइन कार्यक्रम के दौरान डॉ. वैदिक से लंबी बातचीत का अवसर मिला था। तब से ही हमारी मुलाकात लगातार होती रही। उनकी आत्मीयता हमेशा बरकरार रही। डॉ. मोक्षराज के अनुसार 12 वर्ष की आयु से ही हिंदी आंदोलन में सक्रिय रहे, हिन्दी पत्रकारिता के प्रचंड सूर्य डॉ. वेदप्रताप वैदिक का अस्त होना एक वैश्विक क्षति है।
कई मीडिया संस्थानों में संपादक व विचार संपादक रहे डॉ. वैदिक भारतवासियों और भारतीयता के कायल थे। वह मानते थे कि विश्व में भारत को सम्मान दिलाने में प्रवासी भारतीय लगातार महती भूमिका अदा करेंगे। आज ऐसा होता नजर आ भी रहा है। तीन माह पूर्व इंदौर में हुए प्रवासी भारतीय दिवस सम्मेलन में उन्होंने प्रवासी भारतीयों की खूब तारीफ की थी और कहा था कि मैक्सिको, रूस और चीन के लोग भी बड़ी संख्या में विदेशों में जाकर बसे हैं लेकिन उनमें और भारतीयों में बड़ा अंतर यह है कि भारत के लोग अपनी सरकारों से तंग होकर विदेश नहीं भागे हैं। वे बेहतर अवसरों की तलाश में वहां गए हैं। उन्होंने कहा था कि जिन भारतीयों को डेढ़ सौ-दो सौ साल पहले बंधुआ मजदूर बनाकर अंग्रेज लोग फिजी, मॉरिशस और सूरिनाम जैसे देशों में ले गए थे, उनकी बात जाने दें और आज के करोड़ों प्रवासी भारतीयों पर नजर डालें तो आप पाएंगे कि वे जिस देश में भी रहते हैं, वहां के सबसे शिक्षित, मालदार और सभ्य लोग माने जाते हैं। अमेरिका के सबसे सम्पन्न वर्गों में भारतीयों का स्थान अग्रगण्य है। प्रतिभा-पलायन के कारण भारत का नुकसान जरूर होता है लेकिन हम यह न भूलें कि ये लोग हर साल भारत में अरबों डॉलर भेजते हैं। पिछले वर्ष 100 अरब डॉलर से ज्यादा की राशि हमारे प्रवासियों ने भारत भिजवाई है।
डॉ. वैदिक को पत्रकारिता और भाषा के क्षेत्र में काम करने के लिए कई सम्मान मिल चुके हैं। विश्व हिन्दी सम्मान (2003), महात्मा गांधी सम्मान (2008), दिनकर शिखर सम्मान, पुरुषोत्तम टंडन स्वर्ण-पदक, गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार, हिन्दी अकादमी सम्मान, लोहिया सम्मान, काबुल विश्वविद्यालय पुरस्कार, मीडिया इंडिया सम्मान, लाला लाजपतराय सम्मान आदि से उन्हें नवाजा जा चुका है। वे कई न्यासों, संस्थाओं और संगठनों में सक्रिय रहे और वरिष्ठ पदों पर रहे, इनमें भारतीय भाषा सम्मेलन व भारतीय विदेश नीति परिषद आदि शामिल हैं।