प्रभजोत पॉल सिंह
आठ साल पहले अपने द्विपक्षीय संबंधों को रणनीतिक रिश्ते तक 'उन्नत' करने का वादा करने वाले दो 'मित्रवत' राष्ट्र अब एक अभूतपूर्व कटुतापूर्ण और 'जैसे को तैसा' वाले 'रणनीतिक' युद्ध में फंस गए हैं। आखिर इस बड़ी दरार का कारण क्या है? दोस्त दुश्मन बन गए हैं और दुनिया के साथ ही विशेष तौर पर उपमहाद्वीप के आप्रवासी इस महीने की शुरुआत से सामने आने वाले घटनाक्रम से भयभीत और स्तब्ध हैं।

G20 शिखर सम्मेलन के एक हिस्से के रूप में कनाडा ने वर्ष 2010 और भारत ने इस वर्ष विश्व नेतृत्व की मेजबानी की है। कहने को दोनों देशों की इन भूमिकाओं में कई समानताएं हैं लेकिन दोनों आयोजनों के नतीजे उम्मीदों के विपरीत रहे हैं। यह सही है कि दोनों देशों के बीच लंबे समय से संबंध सौहार्दपूर्ण तो नहीं रहे अलबत्ता बीच-बीच की घटनाओं ने रिश्तों में कड़वाहट लगातार पैदा की।
इस बार भी भारत की मेजबानी में नई दिल्ली में हुआ G20 शिखर सम्मेलन आयोजन से लेकर तमाम मोर्चों पर शानदार रहा लेकिन भारत-कनाडा के द्विपक्षीय संबंधों को लेकर पहले ही दिन से किरकिरी भरा रहा। अगर दोनों देशों के ही लिहाज से बात करें तो इस बार भी G20 का एजेंडा एक तरफ चला गया और खटास के अनेक पहलू उभर आए। सम्मेलन से इतर भारत के प्रधानमंत्री मोदी ने करीब 15 द्विपक्षीय वार्ताएं कीं मगर कनाडा इनमें कहीं नहीं था। मेजबान की ओर से उपेक्षा का यह बड़ा पहलू था। दिल्ली में टकराव के कुछ बिंदु कम हो सकते थे पर मौका चला गया।
नई दिल्ली G20 शिखर सम्मेलन 1999 में अपनी शुरुआत के बाद से सबसे अच्छी तरह से आयोजित भव्य सभा के रूप में इतिहास के पन्नों में दर्ज हो सकता है लेकिन यह भारत-कनाडाई गतिरोध पर एक कड़वा स्वाद भी छोड़ गया है। यदि कोई नई दिल्ली शिखर सम्मेलन का आकलन करे तो कह सकता है कि इसने भारत को शक्ति के एक नए गुटनिरपेक्ष केंद्र या ग्लोबल साउथ नेता के रूप में उभरते हुए देखा हो लेकिन इसने दो देशों को भी टूटते हुए देखा है जो अपनी द्विपक्षीयता को एक नई रणनीतिक साझेदारी की ओर ले जाना चाहते थे। भारत और कनाडा के रिश्ते असीम कड़वाहट और लगभग दुश्मनी में क्यों बदले इसके कई दृश्यमान तो कई अतीतगत कारण हैं।
भारत-कनाडा के संबंध आमतौर पर मध्यम व्यापार, विशाल भारतीय निवेश और कनाडा में एक बड़े भारतीय प्रवासी समूह की उपस्थिति से प्रेरित रहे हैं। हालांकि इन पहलुओं को भारत की ओर से कड़ी आलोचना के कारण दबा दिया गया। आलोचना इस बिंदू पर होती रही कि कनाडा सिख अलगाववादी आंदोलन के प्रति अत्यधिक सहानुभूति रखता है। दूसरी तरफ कनाडा का आरोप यह रहा है कि भारतीय अधिकारी उसके आंतरिक सियासी मामलों में दखल दे रहे हैं। पहले से चली आ रही इस तल्खी पर इस बार कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने रिश्तों के लिहाज से 'विध्वंसक' तीर चला दिया।
हुआ यह है कि 18 जून को कनाडा की धरती पर हरदीप सिंह निज्जर नाम का एक नागरिक मारा गया। यह वही निज्जर था जिसे भारत ने आतंकवादी घोषित किया हुआ था। इसी बीच प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने कह दिया कि कनाडाई नागरिक निज्जर की हत्या में भारत सरकार के एजेंटों के संलिप्त होने के उनके पास 'पुख्ता' सुबूत हैं।
बस यहीं से दबे हुए शोले भड़क उठे। भारत ने जहां कनाडा के आरोपों को नकारते हुए बकवास करार दिया तो विश्व जमात ने सुबूत सार्वजनिक करने की बात कही। कनाडा और खास तौर से सरकार का मुखिया होने के नाते ट्रूडो अपने आरोप से पक्ष में अब तक कोई साक्ष्य नहीं रख सके हैं। इस पर उनकी घर और बाहर निंदा हो रही है। इस घटनाक्रम में दोनों देश एक-दूसरे के एक-एक आला अधिकारियों को निकाल चुके हैं। यानी जैसे को तैसा। इस पर भी भारत ने कनाडा को भारत में अपने राजनयिक कर्मचारियों को कम करने के अलावा अपने कनाडाई मिशनों से वीजा सेवाओं को निलंबित करने की भी घोषणा कर दी है।
वैसे, द्विपक्षीय संबंधों में गर्मजोशी और सौहार्द शुरू से ही गायब रहा है। जरा कल्पना कीजिए भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की कनाडा यात्रा के ठीक 23 साल बाद किसी कनाडाई प्रधानमंत्री की भारत की पहली आधिकारिक यात्रा 1996 में हुई। भारत के प्रधानमंत्री की कनाडा यात्रा के लगभग 42 साल बाद बतौर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 2015 में कनाडा गये।
कनाडा की यात्रा के एक साल बाद इंदिरा गांधी पोखरण में परमाणु विस्फोट करके दुनिया को बताना चाहती थीं कि भारत परमाणु शक्ति बनने की दहलीज पर है जिसके कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिक्रिया हुई। तत्कालीन कनाडाई प्रधानमंत्री पियरे ट्रूडो (वर्तमान प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के पिता) ने इसकी 'विश्वासघात' के रूप में आलोचना की क्योंकि विस्फोट में इस्तेमाल किया गया प्लूटोनियम कनाडाई सहायता प्राप्त परमाणु रिएक्टर साइरस द्वारा उत्पादित किया गया था।
आठ साल बाद 1982 में भारत सरकार ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के माध्यम से कनाडा की धरती का इस्तेमाल सिख चरमपंथियों द्वारा एक अलग सिख मातृभूमि (खालिस्तान) की मांग के लिए किए जाने का मुद्दा उठाया। हालांकि पियरे ट्रूडो, जो पोखरण में भारतीय कार्रवाई से आहत महसूस कर रहे थे, चुप रहे।
1996 में जीन चेरेतिएन भारत का दौरा करने वाले पहले कनाडाई प्रधानमंत्री बने। उनकी यात्रा को तत्काल अतीत में द्विपक्षीय संबंधों को हुए नुकसान की भरपाई के लिए एक राजनयिक प्रयास के रूप में देखा गया था। चेरेतिएन अमृतसर (भारत) में स्वर्ण मंदिर जाने वाले पहले प्रधानमंत्री भी थे। उन्होंने चंडीगढ़ में कनाडा के वाणिज्य दूतावास का भी उद्घाटन किया जो नई दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और चेन्नई के चार शहरों के बाहर पहला विदेशी मिशन है।
उनकी यात्रा ने द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने की उम्मीदें जगाईं क्योंकि कनाडा में भारतीय प्रवासियों के पहले तीन सदस्यों हर्ब धालीवाल, गुरबख्श सिंह मल्ही और जग भदुरिया को हाउस ऑफ कॉमन्स के लिए सत्तारूढ़ लिबरल पार्टी के टिकट पर चुना गया था। कनाडा भारत में वापस आ गया है और हम यहां रहने के लिए हैं... ऐसा कुछ चेरेतिएन ने अपनी यात्रा के दौरान अक्सर कहा। लेकिन इस यात्रा के दौरान जो भी लाभ हुआ वह दो साल बाद तब ख़त्म हो गया जब भारत ने 1998 में अपना दूसरा परमाणु विस्फोट किया तो कनाडा नई दिल्ली पर प्रतिबंध लगाने वाले पहले कुछ मित्र देशों में से एक था।
तब कनाडा ने भारत से अपना उच्चायुक्त वापस बुला लिया। द्विपक्षीय संबंधों में इस नरमी के दौरान ही प्रेस्टन मैनिंग (रिफॉर्म पार्टी, वर्तमान कंजर्वेटिव के अग्रदूत) के नेतृत्व में विपक्ष के एक प्रतिनिधिमंडल ने भारत का दौरा किया और भारत सरकार के साथ बैठकें कीं। ब्रिटिश कोलंबिया ऑन रिफॉर्म्स (प्रगतिशील गठबंधन) से हाउस ऑफ कॉमन्स के लिए चुने गए गुरमंत ग्रेवाल प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा थे। भारतीय मूल के पहले तीन सांसदों के बाद गुरमंत ग्रेवाल, दीपक ओबराय और रहीम जाफर कनाडाई संसद में पहुंचने वाले भारतीय मूल के सांसदों के अगले प्रतिनिधि थे।
इस तरह से लगातार उतार-चढ़ाव के कारण भारत-कनाडा द्विपक्षीय संबंधों को अक्सर 'चेकर्ड' या 'विचित्र' के रूप में वर्णित किया गया। 2015 में जब 'परमाणु आग' ठंडी हुई तो सिख अलगाववादियों द्वारा कनाडाई धरती का उपयोग द्विपक्षीय संबंधों को कड़वा करने लगा। निज्जर की कनाडा में हत्या के बाद लड़खड़ाते रिश्तों में विध्वंस का विस्फोट हो गया। इस धारणा में बहुत कम या कुछ हद तक विश्वसनीयता हो सकती है कि जस्टिन ट्रूडो द्वारा हाउस ऑफ कॉमन्स में दिया गया बयान सिखों को खुश करने के लिए था जो देश की आबादी का केवल दो प्रतिशत हैं। वैसे, कुछ महीने पहले यह आंकड़ा 40 मिलियन यानी 4 करोड़ की रेखा को पार कर गया है।
(प्रभजोत पॉल सिंह, 5WH.Com पर टोरंटो स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं)