नटवर गांधी
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 15 अगस्त, 1947 की आधी रात को अपने पहले स्वतंत्रता दिवस संबोधन "ए ट्रिस्ट विद डेस्टिनी" में साथी नागरिकों से पूछा था, "हम कहां जाएं और हमारा प्रयास क्या होगा? एक समृद्ध, लोकतांत्रिक और प्रगतिशील राष्ट्र के निर्माण के लिए आम आदमी को स्वतंत्रता और अवसर प्रदान करना, और ...हर पुरुष एवं महिला के लिए न्याय व जीवन की परिपूर्णता सुनिश्चित करना। मैं सोचता हूं कि 15 अगस्त, 2047 को स्वतंत्र और स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में भारत के पहले सौ साल पूरे होने पर भारत के प्रधानमंत्री लाल किले की प्राचीर से क्या कहेंगे। शायद वे कहेंगे कि हम उस दिन से दूर, दूर और बहुत दूर की यात्रा कर चुके हैं, जब पंडित नेहरू ने संसद भवन में अपना प्रसिद्ध भाषण दिया था।
उस आजादी के समय हालांकि ब्रिटेन और अन्य साम्राज्यवादियों ने चेतावनी दी थी कि स्वतंत्र रूप में भारत लंबे समय तक नहीं चल पाएगा। पचास और साठ के दशक में देश और विदेश में ऐसे पर्यवेक्षकों की कमी नहीं थी, जिन्होंने भविष्यवाणी की थी कि देश जल्द ही विघटित हो जाएगा। अमेरिकी राजनीतिक वैज्ञानिक सेलिग हैरिसन ने इंडिया- द मोस्ट डेंजरस डिकेड्स (1964) नामक पुस्तक में देश के बाल्कनीकरण (Balkanization) की चिंताओं को उठाया था। नोबेल पुरस्कार विजेता उपन्यासकार वीएस नायपॉल ने तो इसे 'अंधकार का क्षेत्र' कहकर खारिज कर दिया था।
उन कठिन शुरुआती वर्षों के बाद भी दशकों तक देश को काफी तरह की कमियां और पाबंदियों झेलनी पड़ीं। अन्य बातों के अलावा उसके सामने भोजन की कमी की भी समस्या थी। खाद्य सहायता की तलाश में खाद्य मंत्री विदेश जाते थे। लगभग सभी महत्वपूर्ण वस्तुओं के बारे में उस दौर में यही स्थिति थी। सीमेंट की आपूर्ति भी कम थी। टेलीफोन या कार लेनी होती थी तो कई साल इंतजार करना होता था, वह भी अधिकारियों को रिश्वत देने के बाद। विदेशी मुद्रा की कमी थी। कुछ भी आयात करने के लिए लाइसेंस की आवश्यकता होती थी। सार्वजनिक क्षेत्र की बड़ी अक्षम कंपनियों का बैंकिंग, बीमा, इस्पात, सीमेंट जैसे अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर एकाधिकार था। नौकरशाहों का वर्चस्व था। अर्थव्यवस्था के बाकी हिस्सों के लिए यह "लाइसेंस-परमिट" राज था, जैसा कि भारत के बुद्धिमान बुजुर्गों में से एक राजाजी ने कहा था। किसी भी तरह की व्यावसायिक गतिविधि करने के लिए सरकार से अनुमति की आवश्यकता होती थी। यहां तक कि रोजमर्रा की जिंदगी भी निषेधों से भरी था।
बूढ़े लोगों ने देश पर शासन किया। अक्टूबर 1962 में चीनी "भाइयों" ने भारत को आक्रमण करके धोखा दिया। नेहरू एक पराजित इंसान बन गए थे। वह लंबे समय तक नही चल पाए। बाकी जनता में काफी हद तक भ्रष्ट प्रांतीय राजनेता थे, जिनके पास देश या विदेश में नेहरू जैसा कद नहीं था। अहंकारी वरिष्ठ सिविल सेवकों के साथ-साथ छोटे नौकरशाह भी आम आदमी के दुख के प्रति उदासीन थे। इन सभी पूर्वाभासों के बावजूद भारत एक बड़े पैमाने पर धर्मनिरपेक्ष, उदार लोकतंत्र के रूप में जीवित रहा। कई देश जिन्होंने लगभग उसी समय स्वतंत्रता प्राप्त की थी, वे तानाशाही, सैन्य नियमों या उससे भी बदतर अराजकता में घिर गए।
वर्ष 2047 तक की भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर मैं एक भविष्यवाणी करता हूं कि वह एक व्यापक रूप से बेहतर, बुनियादी ढांचे वाली, एकीकृत राष्ट्रीय बाजार से युक्त और विस्तारित विनिर्माण क्षेत्र से प्रेरित होगी। ऐसी अर्थव्यवस्था जो ग्रामीण जनता को जीवंत महानगरों की ओर आकर्षित करेगी और गरीबी के भारी बोझ को कम करके उन्हें बेहतर जीवन प्रदान करेगी।
हालांकि मुझे खतरे के दो संकेत भी दिखाई देते हैं। सबसे पहला, आज से तीस साल बाद मुझे लगता है कि भारत को पर्यावरणीय गिरावट और वायु प्रदूषण की भारी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। अगर पर्यावरण की रक्षा और प्रदूषण को रोकने के लिए कठोर उपाय नहीं किए गए तो यह समस्या विकराल हो जाएगी। वर्तमान में दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों की एक बड़ी संख्या भारत में है। दूसरा, भारत का जनसांख्यिकीय लाभांश दुनिया में काम करने वाले युवाओं का सबसे बड़ा पूल बन सकता है। इसके लिए ऊर्जा आत्मनिर्भरता और निर्यात-आधारित विनिर्माण क्षेत्र के आक्रामक रूप से विस्तार की आवश्यकता होगी जो नौकरी बाजार में नए प्रवेशकों को अवशोषित कर सके। इस तरह की बढ़ती अर्थव्यवस्था को एक कुशल कार्यबल की आवश्यकता होती है।
दुर्भाग्य से, वर्तमान भारतीय शिक्षा प्रणाली श्रमिकों विशेष रूप से महिलाओं को पढ़ने, लिखने और अंकगणित के आवश्यक बुनियादी कौशल में प्रशिक्षित करने में विफल रही है। अगर यह विस्तारित कार्यबल - 10 लाख या उससे अधिक प्रति माह - लाभप्रद रूप से नियोजित नहीं है तो मुझे लगता है कि भारत अपनी पूरी क्षमता हासिल करने में विफल रहा है।
फिर भी मैं आशावादी हूं। मैं अपनी स्वतंत्रता की पहली शताब्दी के अंत में देखता हूं कि भारत अपने महाद्वीपीय आकार और विविध लोगों के बीच असंख्य मतभेदों के बावजूद एक स्वतंत्र और एकीकृत लोकतांत्रिक देश बना रहेगा। 1947 के एक डरपोक और संकोची राष्ट्र से आगे निकलकर वह एक मुखर, आक्रामक और विशालकाय रूप में सामने आएगा। भारतीय कंपनियां दुनिया भर में अपना परचम लहराएंगी। स्मार्ट भारतीय विदेशों में मेजबान समुदायों को हैरान कर देंगे। विशाल भारतीय मध्यम वर्ग पहले से ही समृद्धि की तरफ बढ़ रहा है। वैश्वीकरण और बेहतर संचार के फायदे उठा रहा है। मैं युवा भारतीयों विशेष रूप से युवा महिलाओं को आत्मविश्वास के साथ अपना भविष्य बनाते हुए देखता हूं। इस सबके साथ भारत सबसे अधिक आबादी वाला देश होने के बावजूद दुनिया का एक महत्वपूर्ण देश होगा।
नटवर गांधी: वाशिंगटन डीसी में 2000-14 तक मुख्य वित्तीय अधिकारी रहे हैं। वह वर्तमान में वाशिंगटन में रहते हैं।