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विशेष लेख: प्रधानमंत्री मोदी की एक और अहम यात्रा

अमेरिका और फ्रांस में जिस गर्मजोशी से पीएम मोदी का स्वागत-सत्कार किया गया उससे साफ हो जाता है कि आज भारत कहां खड़ा है और निकट अतीत में उसने क्या अर्जित किया है। हाल की विदेशी यात्राओं के दौरान पीएम मोदी ने मतभेदों को शांतिपूर्ण ढंग से और संप्रभुता के सम्मान के साथ हल करने की जरूरत पर जोर दिया है।

भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों। Image : twitter@Narendra Modi

हाल के सप्ताहों में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पश्चिम की दो प्रमुख यात्राओं पर रहे। हर एक यात्रा भारत की कूटनीति में एक नए चरण का संकेत दे रही है। अमेरिका और फ्रांस में जिस गर्मजोशी से पीएम मोदी का स्वागत-सत्कार किया गया उससे साफ हो जाता है कि आज भारत कहां खड़ा है और निकट अतीत में उसने क्या अर्जित किया है।

यह भी स्पष्ट हो रहा है कि आज दुनिया भारत को किस नजर से देख रही है। प्रौद्योगिकी हस्तांतरण, उत्पादन केंद्रों की स्थापना या परिष्कृत हथियारों की सीधी बिक्री पर समझौते इस बात को रेखांकित करने के लिए पर्याप्त हैं कि विकसित पश्चिमी देश भारत पर कितना भरोसा कर रहे हैं। हालात कुछ ऐसे हैं कि निकटतम सहयोगी भी जलन महसूस करें।

पिछले महीने अमेरिका में और हाल ही में फ्रांस में रणनीतिक मुद्दों को लेकर साफगोई से बात हुई। नाम न लेकर या इशारा करने जैसा कुछ नहीं था। यानी सब कुछ स्पष्ट। लेकिन हिंद-प्रशांत क्षेत्र की वास्तविकताओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इस मामले में संयुक्त राष्ट्र की बेरुखी को भी लंबे समय तक छोड़ा नहीं जा सकता। जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी ने एक फ्रांसीसी अखबार को दिए एक इंटरव्यू में खुले तौर पर कहा भी है कि सुरक्षा परिषद में 'सदस्यता में कमी' एक 'अपारदर्शी निर्णय लेने की प्रक्रिया की ओर' ले जाती है। यह केवल एक प्रधानमंत्री की बात नहीं है जो अपने देश को तथाकथित विशिष्ट क्लब में शामिल करने के लिए बोल रहा है बल्कि मोदी ने सबसे बड़े लोकतंत्र की अनुपस्थिति में दुनिया के लिए बोलने वाले सुरक्षा परिषद की विश्वसनीयता की ओर सही ढंग से इशारा कर दिया।

फ्रांस और भारत दोनों समझते हैं कि राष्ट्रों का एक छोटा सा समूह नई दिल्ली को परिषद में शामिल करने के लिए क्यों अनिच्छुक हो सकता है। लेकिन यह दिखावा जारी रखना कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता शायद ही किसी का ध्यान आकर्षित कर सके। अब समय आ गया है कि पश्चिम एक 'अकेली' प्रमुख शक्ति के साथ खड़ा हो ताकि न्यूयॉर्क स्थित विश्व निकाय में यथार्थवाद का तत्व शामिल हो। मोदी की यात्रा से पता चला है कि भारत और फ्रांस ने पिछले 25 वर्षों में एक लंबा सफर तय किया है और आने वाले दशकों के लिए पूरी ताकत से आगे बढ़ने के दृढ़ संकल्प का संकेत दिया है। यह रिश्ता राफेल, स्कॉर्पीन और असैनिक परमाणु रिएक्टरों के लिए उच्च तकनीक से भी आगे जाता है। यह एक समझ है कि दोनों देश ग्लोबल साउथ से संबंधित मुद्दों या यूक्रेन में चल रही गड़बड़ी से बाहर निकलने का रास्ता खोजने में व्यक्तिगत रूप से और एक साथ सार्थक भूमिका निभा सकते हैं।

संघर्ष की शुरुआत में ही फ्रांस ने यह स्पष्ट कर दिया था कि हालात के लिए बार-बार पुतिन का नाम लेना समस्या के समाधान का तरीका नहीं है। अपनी हाल की विदेशी यात्राओं के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने कई अवसरों पर मतभेदों को शांतिपूर्ण ढंग से और संप्रभुता के सम्मान के साथ हल करने की आवश्यकता पर जोर दिया है और यह साफ किया है कि व्यापक और रणनीतिक साझेदारी को किसी एक देश पर लक्षित करने की आवश्यकता नहीं है। पीएम मोदी ने कहा भी है कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र सहित हमारी साझेदारी किसी देश के खिलाफ या उसकी कीमत पर नहीं है। और चीन, जो भारत को पश्चिम, विशेषकर संयुक्त राज्य अमेरिका, के करीब आते देख रहा है, हो सकता है इसे 'चेहरा देखकर' न समझे। बेशक, पश्चिम के साथ भारत के संबंध अपने राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए बहुआयामी तरीके से गतिमान हैं।

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