अफगानिस्तान के बारे में बात करते हुए आंखें भर आती हैं। गला रुंध जाता है। त्रासदी और प्रताड़ना का मंजर नजरों से गुजरने लगता है। न केवल उस दयनीय आर्थिक स्थिति की याद आती है, जिससे देश गुजर रहा है बल्कि मानवाधिकारों के लगातार हो रहे घोर उल्लंघनों की दर्दनाक तस्वीर भी बनती है जिसे किसी न किसी नाम पर उचित ठहराया जा रहा है। अफगानिस्तान ने दशकों से शांति नहीं देखी थी। उन्हीं हालात में 15 अगस्त, 2021 को तालिबान ने बेरहमी के साथ अफगान सत्ता पर कब्जा कर लिया। तब से लेकर अब तक तालिबान वहां पर सतही बदलाव लाने के लिए जरा भी इच्छुक नहीं दिखता।
अन्य राष्ट्रों के समूह में जो लोग काबुल के शासकों को दंडित करने पर आमादा हैं वे भूल रहे हैं कि असली पीड़ित उस देश के असहाय नागरिक हैं। उस मध्य एशियाई देश में हालात बेहतर होने के आसार भी नहीं दिख रहे क्योंकि कोई भी वहां की चुनौतियों के निस्तारण के लिए उद्यत दिखाई नहीं पड़ रहा। वहां के लोगों को क्रूर सर्दियां झेलने के लिए छोड़ दिया गया है। कइयों को एक वक्त का भोजन भी नसीब नहीं होता। हालांकि कुछ देश ऐसे हैं जो विशुद्ध मानवता के आधार पर मदद करना चाहते हैं लेकिन वे भी कई अड़चनों के चलते असहाय हैं। इसलिए कि सत्तारूढ़ गुट सब कुछ अपने तरीके से देखना-करना चाहता है।
इस मसले का दुखद पहलू यह है कि अफगानिस्तान में क्या हो रहा है यह जानने के लिए ब्रह्मज्ञानी होने की जरूरत नहीं है और न ही मानवाधिकार संगठनों को दुनिया को बताने की जरूरत है। सच तो यह है कि तालिबान सत्ता के दो साल बाद ऐसा कुछ उल्लेखनीय और आशाजनक नहीं है जिसके बारे में लिखा जाए। ऐसा जो वहां के निर्दोष लोगों में उम्मीद पैदा करे। तालिबान एक तथाकथित मसीहा के रूप में वहां पहुंचा था लेकिन जल्द ही दुनिया के सामने उसके इरादे खुलते चले गये। तालिबान की सत्ता को लेकर जो आशंकाएं थीं वे सारी की सारी सच साबित हुईं। जिस किस्म के अत्याचारों के लिए तालिबान कुख्यात थे, वे सब तारी हुए। कठोरता और क्रूरता सड़कों पर नाचने लगी। सभ्य समुदाय को जिस बात ने वास्तव में परेशान किया वह यह है कि तालिबान अपने ही नागरिकों, विशेषकर महिलाओं और बच्चियों से निपटने में किस हद तक जा सकता है, जो वास्तव में एक लुप्तप्राय समूह और आसान लक्ष्य बन गए हैं।
योजनाबद्ध तरीके से शासक गुट ने शिक्षा के बुनियादी अधिकार को कुचलना शुरू कर दिया। युवा लड़कियों और महिलाओं के लिए स्कूलों और उच्च शिक्षा के दरवाजे बंद करके तालिबान ने प्रभावी रूप से पीढ़ियों को मौलिक अधिकार से वंचित कर दिया है। उन्हें इस बात का जरा भी अहसास नहीं है कि यह सब देश के विकास को प्रभावित करता है। ऐसी सत्ता से उम्मीद ही क्या की जा सकती है जो विकास और आगे बढ़ने की बुनियादी अनिवार्यताओं को समझती ही नहीं है? लेकिन समान विचारधारा वाले देशों के एक बहुत छोटे समूह के लिए जो मानवाधिकारों के प्रति बहुत कम सम्मान रखते हैं तालिबान वस्तुतः राष्ट्रों के समुदाय में अलग-थलग है। यही नहीं अमेरिका, संयुक्त राष्ट्र और अन्य बहुपक्षीय संस्थानों के प्रतिबंधों के कारण वह अपने पास मौजूद थोड़े से वित्तीय संसाधनों का उपयोग करने में भी असमर्थ है। बाहरी दुनिया एक छोटी सी उम्मीद कर रही है कि वहां की महिलाओं और बच्चियों के जीवन और अधिकारों के लिए कुछ तो सकारात्मक होता दिखे। और यह कोई बहुत बड़ी उम्मीद नहीं है।