योग, ध्यान और उपनिषद... इनसे ही निकलेगा हिंसा का समाधान, कैसे?

पूरे विश्व में अंधकार का दौर चल रहा है। राजनीतिक साजिश, युद्ध, लोगों की हत्याएं, देशों पर हमला, अपने-अपने तर्कों के भ्रमजाल से उचित ठहराए जा रहे हैं और पूरी दुनिया तमाशे की तरह इसे देख रही है। और यह महज वर्तमान दौर की ही बात नहीं है। लगभग एक हजार से दो हजार वर्षों तक मानव जाति के इतिहास में एक बहुत गहन अंधेरे का दौर रहा है। आज युद्ध, हिंसा की मानसिकता गली-मोहल्ले से लेकर पूरी दुनिया मानवजाति को निगल जाने को आतुर दिख रही है। ऐसे में इनसे बचने का उपाय क्या है? आइए हिंसा की इस बढ़ती प्रवृति और इसके समाधान पर विचार करते हैं।

भारतीय चिंतन में अंधकार को दूर करने की शक्ति है। Photo by Mesh / Unsplash

प्राचीन काल में राजाओं और सम्राटों ने देशों पर शासन किया, लेकिन वे अंतिम शक्तियां नहीं थीं। ताकत उनके पास थी जो बुद्धिमान थे, जिनके पास ज्ञान की शक्ति थी। आप उन्हें ऋषि, स्वामी या योगी कह सकते हैं। उन्होंने अपनी ज्ञान की शक्ति से समाज से संबंधित कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए और समाज को संचालित किया। लेकिन बाद में ज्ञान को धारण करने वालों की यह परंपरा पतन की प्रक्रिया से गुजरी और धीरे-धीरे कमजोर हो गई। इसके बाद ये सम्राट, राजा और बाद में सैन्य कमांडर बहुत अधिक शक्तिशाली हो गए। इनके पास विविधता को स्वीकार करने का दर्शन, प्रकृति को समझने की शक्ति नहीं थी।

ध्यान की गहराई से ही अहिंसा का जन्म होता है। Photo by Kiran Anklekar / Unsplash

इन लोगों ने बुद्धिमान लोगों के बिना, किसी अंकुश के बिना अपनी शक्ति का दुरुपयोग किया। इन्होंने एक ऐसे समाज का निर्माण किया जो केवल अपनी आर्थिक जरूरतों को पूरा करता रहे। सभी परंपराओं, सभी कानूनों को इस तरह से तैयार किया गया था जिससे भौतिकवाद को गति मिले। आध्यात्मिकता और आध्यात्मिक चिंतन से इन्हें कोई वास्ता नहीं था। इन्होंने धर्मों का संरक्षण किया, लेकिन केवल धार्मिक अनुयायियों पर पूर्ण नियंत्रण रखने के लिए।

इन्होंने धर्मों को संरक्षण दिया और मंदिर, मस्जिद और चर्च बनाए। उन्होंने धार्मिक संगठनों की स्थापना की, लेकिन यह सब भौतिक उद्देश्य का हिस्सा था। इसका मकसद सिर्फ इतना था कि वे और अधिक शक्तिशाली बनना चाहते थे। उदाहरण के लिए रूस में साम्यवाद के शुरुआती दिनों में सरकार ने चर्चों की अनदेखी की। क्योंकि वे धर्म को अफीम मानते हैं। लेकिन बाद में उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ।

उन्होंने महसूस किया है कि अगर वे चर्चों की उपेक्षा करते हैं तो उनके खिलाफ एक भूमिगत आंदोलन शुरू हो जाएगा। लोगों के भीतर आक्रोश का जन्म होगा। इसलिए रूस, पोलैंड और यूगोस्लाविया में उन्होंने चर्चों के साथ बहुत अधिक हस्तक्षेप की नीति छोड़ दी। वे उन्हें मरम्मत, सफेदी और अन्य सभी के लिए थोड़ा पैसा देते रहे, ताकि उन्हें अपनी शक्ति के दायरे में लाया जा सके।

एक से दो हजार वर्षों के अंधेरे युग के दौरान कई मजहब अस्तित्व में आए और इन्होंने मजहब की ताकत का इस्तेमाल करते हुए सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत की। आज भी राजनीतिक ताकतें मजहब का चोला ओढ़कर हिंसा का तांड़व पूरी दुनिया में मचा रहे हैं। ऐसे में अब समय आ रहा है जब लोगों को अपनी प्राचीन मूल संस्कृति को महसूस करना होगा, जो कभी दुनिया भर में मौजूद थीं। एक ऐसी संस्कृति जिसने मनुष्य की भौतिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं के बीच संतुलन रखा।

इस संस्कृति के संरक्षक ने महज किसी एक पहलू पर जोर नहीं दिया। वे संसार और आध्यात्मिकता के बीच संतुलन बनाए रखते थे। क्या वह फिर से वापस आ सकता है? इसके लिए हमें गीता, महाभारत, रामायण, उपनिषद की कई कहानियों को दुनिया भर में फिर से बताना होगा। इन कहानियों को फिर से पढ़ना होगा और हमारे बच्चों को सुनाया जाना चाहिए। यदि उन्हें फिर से खोजा और बताया नहीं गया, तो हमारी अगली पीढ़ी पूरी तरह से गहरे अंधेरे में जीने को विवश होगी।

आज जब पूरी दुनिया लगातार संकटों की स्थिति में है, तो हम कैसे कह सकते हैं कि योग, ध्यान और उपनिषद का दर्शन केवल हमारे लिए है? दवा एक स्वस्थ आदमी के लिए नहीं है, यह उनके लिए है जो बीमार हैं। योग उन लोगों के लिए नहीं है जिन्होंने शांति प्राप्त कर ली है। योग उन लोगों के लिए है जिनके मन विचलित हैं और भावनाएं असंतुलित हैं।

योग उन लोगों के लिए है जिनके पास कोई आत्म-नियंत्रण नहीं है और परिवार और समाज के भीतर सभी प्रकार के विघटनकारी तरीकों से व्यवहार करते हैं। ऐसे में मानवता को यह महसूस करना होगा कि योग, उपनिषद, शांति-अहिंसा का दर्शन न केवल व्यक्तिगत मुक्ति के लिए, बल्कि समाज और राष्ट्र की मुक्ति के लिए भी कितना महत्वपूर्ण है।