योग मजहब, नस्ल के आधार पर भेद नहीं करता, सबसे अपनत्व रखता है
क्या आप जानते हैं कि दुनिया भर में योग और ध्यान की लोकप्रियता के पीछे क्या कारण हैं। योग हिंदू दर्शन की परंपरा से जन्मा है, लेकिन यह सिर्फ हिंदुओं तक ही सीमित नहीं है। योग अपनी विशाल बांहों से सबको अपनी छांव में आसरा दे रहा है चाहे मजहबी तौर पर उनका विश्वास कुछ और ही हो।
अगर अमेरिका की बात करें तो योग और ध्यान की लोकप्रियता में यहां भारी इजाफा हुआ है। अमेरिका में योग, तनाव से राहत पाने का एक लोकप्रिय रूप बन गया है। कई रिपोर्ट में ये बात सामने आ चुकी है कि अमेरिका में 3.6 करोड़ अमेरिकी योग करते हैं और 1.8 करोड़ ध्यान लगाते हैं। ऐसी ही स्थिति दुनिया के कई देशों में है, जहां योग का चलन अपने चरम पर है।
सवाल उठता है कि आखिर इसके पीछे क्या वजह है? दरअसल, योग भारत की सनातन वैज्ञानिक परंपरा से निकला है। यह धार्मिक कर्मकांड की जगह शुद्ध रूप से शरीर और मन को संवारने का विज्ञान है। इसलिए इसे अपनाने से किसी की मजहबी निष्ठा पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। इसे उदाहरण से समझें। मान लीजिए आप कोई योगासन कर रहे हैं। सर्वांगासन कर रहे हैं, जिसमें सिर नीचे और पैर ऊपर है। इस आसन के बहुत फायदे हैं। अब आप चाहें हिंदू हों या मुसलमान या अन्य किसी मत के मानने वाले। फायदा तो आपको समान रूप से मिलता है।
अब सांसें तो हिंदू-मुसलमान नहीं होती हैं। यह हर जीव को प्रकृति का उपहार है। अगर आप प्राणायाम का अभ्यास करते हैं। लंबी गहरी सांस लेते हैं और छोड़ते हैं तो इससे आपकी मजहबी निष्ठा पर कोई असर भी नहीं पड़ता है। यह बिल्कुल विज्ञान की तरह है। जैसे, बिजली की खोज किसी एक महजब की नहीं है, यह रोशनी देने में कोई भेदभाव नहीं करता है। उसी तरह से योग दर्शन है।
दरअसल, इसके मूल में हिंदू चिंतन की अवधारणा है जहां धार्मिक कर्मकांड से कहीं ऊपर आध्यात्मिक चिंतन है। इसी संदर्भ में श्रीमद्भगवद्गीता को धार्मिक पुस्तक नहीं कह सकते हैं। हांलाकि इस पुस्तक के प्रति हिंदुओं के मन में अगाध श्रद्धा है। फिर भी यह पुस्तक मानव मात्र के लिए है। क्योंकि गीता में भगवान श्रीकृष्ण मनोविज्ञान की बातें कर रहे हैं। जीवन के लक्ष्य को पाने की बात कर रहे हैं। क्रोध, राग, द्वेष से उबरने की बात बता रहे हैं। और ये बातें मानवीय हैं।
योग संतुलित तरीके से एक व्यक्ति में निहित शक्ति का विकास करने का शास्त्र है। योग अभ्यास संस्कृति, राष्ट्रीयता, नस्ल, जाति, पंथ, लिंग, उम्र और शारीरिक अवस्था से परे, सार्वभौमिक है। जैसे बिना स्विच ऑन किए पंखा नहीं चल सकता। ठीक उसी तरह से अभ्यास के बिना कोई भी योग की उपयोगिता का अनुभव नहीं कर सकता है और न ही उसकी क्षमता का अहसास कर सकता है।