पतंजलि ने उस परम चेतना को 'प्रणव' क्यों कहा, ॐ इतना अहम क्यों है?
भारतीय परंपरा में ओम का बहुत ही महत्व है। हर मंत्र की शुरुआत ओम से ही होती है। योगसूत्र में महर्षि पतंजलि कहते हैं, तस्य वाचक: प्रणव:। प्रणव ॐ सभी मंत्रों का बीज है। एक बीज (बीज) के भीतर अभिव्यक्ति की क्षमता है। भारतीय ऋृषियों के मुताबिक ओम प्रारंभिक ध्वनि है जिसमें से पूरा ब्रह्मांड प्रकट हुआ था। इसलिए, ओम को कुल रचनात्मकता का प्रतीक माना जाता है और इसे निर्माता भी कहा जाता है, क्योंकि हिंदू दर्शन में, निर्माता और सृष्टि अलग-अलग नहीं है।
ऋग्वेद सबसे पुराना वेद माना जाता है। जहां ओम शब्द का पहली बार उल्लेख किया गया था। ऋग्वेद कहता है कि ओम ब्रह्मांड का प्रतीक है। पूरा ब्रह्मांड समय, स्थान और पदार्थ है। मंडुक्य उपनिषद कहता है, 'अतीत, वर्तमान और भविष्य, सब कुछ सिर्फ ओम है। और जो कुछ भी समय के तीन विभाजनों को पार करता है, वह भी केवल ओम है।
गहरी नींद और पारलौकिक चेतना दोनों में बाहरी वस्तुओं की कोई चेतना नहीं होती है। लेकिन उस वक्त जो रहता है उसे ओम कहते हैं। यह शब्द सनातन धर्म में एक आध्यात्मिक प्रतीक है, जिसे हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म में मौजूद सभी मंत्रों से पहले जाप किया जाता है। ओम शब्द प्राचीन और मध्ययुगीन पांडुलिपियों, मंदिरों, मठों का आध्यात्मिक रूप से एक प्रतीक रहा है। ओम पूरे ब्रह्मांड को एक ही शब्द से बांधे रखता है जो मन, मस्तिष्क, शरीर और आत्मा का प्रतिनिधित्व करता है।
ओम की ध्वनि स्वयंभू है। अर्थात इसे पैदा नहीं किया जा सकता है। हर ध्वनि को कंपन से उत्पन्न किया जाता है। लेकिन ओम ब्रह्मांड की ध्वनि है। कहने का मतलब है कि उनकी आवाज वाली ध्वनि टकराहट से नहीं पैदा होती है बल्कि यह ब्रह्मांड की दैविक ध्वनि है।
इस ही ‘अनहद नाद’ भी कहते हैं। ‘नाद’ का मतलब ध्वनि होता है। अनहद नाद का मतलब है कि एक ऐसी ध्वनि जो बिना किसी टकराहट के लगातार गूंज रही है। सवाल उठता है कि इसे कैसे जाना जा सकता है। ध्यान की अवस्था में जब चित्त पूरी तरह से ठहर जाता है। चेतना पूरी तरह से भीतर प्रवाहमान बनी रहती है, तो शांति की उस परम अवस्था में सतत गूंजायमान इस ध्वनि को सुना जा सकता है।