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अग्रसेन की बावली के अनसुलझे रहस्य, सम्माेहन पैदा कर देता था इसका पानी?

अग्रसेन की बावली में करीब 105 सीढ़ियां हैं। आमिर खान के मशहूर फिल्म पीके के कुछ दृश्य यहीं फिल्माये गये हैं। इस फिल्म ने वास्तव में अग्रसेन की बावली जैसी सदियों पुरानी संरचना के लिए भारतीयों के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों के मन में भी रुचि पैदा कर दी है।

अग्रसेन की बावली भारत की राजधानी दिल्ली में स्थित एक सीढ़ीनुमा कुआं है। इस बावली को महाराजा अग्रसेन ने 14वीं शताब्दी में बनवाया था। दिल्ली के सबसे  शानदार स्थल कनॉट प्लेस के पास हैली रोड में स्थित यह बावली मूलत: 60 मीटर लंबा और 15 मीटर ऊंचा एक कुआं है जिसे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित रखा गया है। इस बावली के तमाम ऐसे अनसुलझे रहस्य हैं, जो आज तक राज ही हैं।

बॉलीवुड अभिनेता आमिर खान की फिल्म 'पीके' की शूटिंग यहां हुई थी। सभी फोटो एवं वीडियोः राजीव भट्ट

कुछ वर्षों पहले तक यह बावली बहुत चर्चित नहीं थी, लेकिन बॉलीवुड अभिनेता आमिर खान की फिल्म 'पीके' की शूटिंग के बाद प्रेमी जोड़ों और टूरिस्टों के बीच यह खूब पसंद की जाने वाली जगह बन गई। अब यहां आने-जाने वालों की अच्छी-खासी संख्या है।

अग्रसेन की बावली में करीब 105 सीढ़ियां हैं। आमिर खान के मशहूर फिल्म पीके के कुछ दृश्य यहीं फिल्माये गये हैं। इस फिल्म ने वास्तव में अग्रसेन की बावली जैसी सदियों पुरानी संरचना के लिए भारतीयों के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों के मन में भी रुचि पैदा कर दी है। फिल्म द्वारा किया गया प्रचार न केवल अग्रसेन की बावली के लिए बल्कि दिल्ली की सभी बावलियों के लिए फायदेमंद साबित हुआ है।

मान्यता है कि महाभारत काल में ही इसका निर्माण करवाया गया था लेकिन बाद में अग्रवाल समाज के महाराजा अग्रसेन ने इसका जीर्णोद्धार कराया, जिसके बाद इसे 'अग्रसेन की बावली' के नाम से जाना जाने लगा। हालांकि अब तक इससे संबंधित कोई ऐसी ऐतिहासिक जानकारी नहीं मिली है, जिससे इस समृद्ध स्मारक के निर्माता की आधिकारिक पुष्टि हो सके।

भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार के नक्शे के अनुसार 1868 में इस स्मारक का निर्माण ब्रिटिश सरकार द्वारा किया गया था। 

भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार के नक्शे के अनुसार 1868 में इस स्मारक का निर्माण ब्रिटिश सरकार द्वारा किया गया था। इस स्मारक को ‘ओजर सेन की बोवली’ के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। वहीं बावली के बाहर लगे शिलापट पर इसका नाम 'उग्रसेन की बावली' लिखा हुआ है।

बावली के पश्चिमी कोने में एक छोटी सी मस्जिद भी बनी है। इस मस्जिद के स्तंभों में कुछ ऐसे विशेष लक्षण और रंग रूप उभरे हुए हैं, जो बौद्ध काल की कुछ असाधारण संरचनाओं  से मेल खाते हैं।

यह बावली लाल बलुए पत्थरों से बनी दीवारों के कारण बेहद सुंदर लगती है।

बावली के शांत वातावरण में पत्थर की ऊंची-ऊंची दीवारों के बीच जब कबूतरों की गुटरगूँ और चमगादड़ों की चीखें और फड़फड़ाहट गूंजती है, तो बावली का माहौल पूरे शरीर में सिहरन पैदा कर देता है। कई बार तो यहां आने वालों ने किसी अदृश्य साया को भी महसूस किया है।

ऊपर-ऊपर से तो यह बावली लाल बलुए पत्थरों से बनी दीवारों के कारण बेहद सुंदर लगती है, लेकिन आप जैसे -जैसे इसकी सीढ़ियों से नीचे उतरते जाते हैं, एक अजीब सी गहरी चुप्पी फैलने लगती और आकाश गायब होने लगता है।

इस बावली के तमाम ऐसे अनसुलझे रहस्य हैं, जो आज तक राज ही हैं। 

इस बावली के तमाम ऐसे अनसुलझे रहस्य हैं, जो आज तक राज ही हैं। हालांकि अब तो लोग यहां के शांत वातावरण में किताबें पढ़ने के लिए भी आते हैं। कई लोग इसकी खूबसूरती के कारण भी यहां खींचे चले आते हैं।

ऐसा कहा जाता है कि कई सालों पहले एक बार इस बावडी में काला पानी भर गया और उस जादुई काले पानी ने कई लोगों को इस पानी में आत्महत्या के लिए मजबूर कर दिया। ऐसा भी माना जाता था कि उस काले पानी में सम्मोहन की शक्ति थी जिससे कई लोगो की जानें चली गयी। तब से अब तक ये बावड़ी हमेशा सूखी ही रहती है केवल बरसात के समय पानी भरा रहता है।

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