यूक्रेन युद्ध की विभीषिका का एक साल और दर्द में सिसकती दुनिया

यह एक ऐसी बरसी है जो याद दिलाती है कि किस तरह एक हिंसक टकराव की भयावहता को आसानी से मिटाया नहीं जा सकता। इसलिए क्योंकि मूर्खता किसी न किसी कारण जारी रहती है। त्रासदी की शुरुआत पिछले साल 24 फरवरी को हुई थी, जब रूस ने यूक्रेन पर हमला बोला। तब रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को लग रहा था कि यूक्रेन को 'नाजियों और ठगों' से छुटकारा दिलाने के लिए उनके फर्जी 'विशेष सैन्य अभियान' को दुनिया सही मान लेगी। उससे भी बुरा उनका यह मान लेना था कि उनके टैंक यूक्रेन में जाएंगे और 'अपना काम करके' आसानी से लौट आएंगे।

लेकिन क्या पुतिन ने दुस्स्वप्न में भी उस भयंकर प्रतिरोध की कल्पना की थी जिसका यूक्रेन के सशस्त्र बलों और लोगों ने प्रदर्शन किया है। एक भरे-पूरे सैन्य अभियान की कीमत केवल रूस, यूक्रेन, यूरोप या अमेरिका को ही नहीं चुकानी पड़ी है, बल्कि इसका भागी वह अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी है जो बेबसी के साथ जंग की आंच झेल रहा है। वैश्विक आर्थिक विकास की खस्ता हालत और बाधित खाद्य आपूर्ति ने इस बेबसी को और बढ़ाया है। मॉस्को ने अभी भी यह अहसास नहीं होने दिया है कि पश्चिमी प्रतिबंध उसे आहत कर रहे हैं। पश्चिमी करदाताओं विशेष रूप से अमेरिकियों को यूक्रेन के युद्ध प्रयासों को वित्तपोषित करने के लिए अतिरिक्त यूरो या डॉलर का भुगतान करना पड़ा है। युद्ध पर अब तक कितना खर्चा हुआ, इसका तो किसी को अनुमान नहीं है लेकिन अमेरिका पर 50 अरब डॉलर का बोझ पड़ चुका है। और इसमें बढ़त जारी है।

एक साल से चल रहे युद्ध का सबसे बड़ा दुखद पहलू यूक्रेन के आम आदमी का दर्द है। रूस के हमलों ने यूक्रेन को पूरी तरह बर्बाद कर दिया है। जब जंगी तोपें शांत होंगी तो मानवता के प्रति कितने ही अपराधों की दास्तानें सामनें होंगी। युद्ध अपराध के बर्बर किस्से भी खुलेंगे। मानवता के खिलाफ आक्रोश को न तो माफ किया जा सकता है और न ही नजरअंदाज किया जा सकता है। जो कुछ चल रहा है, उसका क्रूर पहलू यह है कि राष्ट्रों के समुदाय में कुछ ही देश शत्रुता को समाप्त करने के बारे में गंभीरता से बात कर रहे हैं। वह शत्रुता जो कभी शुरू ही नहीं होनी चाहिए थी। जंग की शुरुआत में युद्ध के खिलाफ कुछ आवाजें यूरोप से उठी थीं मगर परमाणु अस्त्रों के इस्तेमाल की काली परछाइयों में वे दबकर रह गईं। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बार-बार कहा कि यह युद्ध का समय नहीं है। लेकिन अब लगता है कि मॉस्को और कीव में से किसी को भी मोदी की वह बात नहीं याद रही और न उसकी अनूगूंज है।

बेशक, इस मूर्खता को शांत करने के लिए न तो किसी रॉकेट साइंस की जरूरत है और न ही किसी 'नोबल पंडित' के ज्ञान की। उसका तो सीधा तरीका यही है कि दोनों पक्ष संवाद के लिए आमने-सामने बैठें। कुछ देश ऐसे हैं जो दोनों को मनाकर एक टेबल पर बैठा भी सकते हैं। ऐसा भी नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र इस दिशा में कुछ नहीं कर सकता। पर संकट यह है कि महासभा में प्रस्तावों के दांत नहीं होते और सुरक्षा परिषद में रूस वीटो का इस्तेमाल करता है। एक समय लग रहा था कि चीन और भारत जैसे देश, जो इस संघर्ष की जद से सीधे तौर पर बाहर हैं, दोनों युद्धरत देशों से अपनी-अपनी निकटता के चलते कुछ कर पाएंगे। लेकिन बीजिंग की मॉस्को से खासी निकटता के बाद भी वह संयुक्त राष्ट्र महासभा में कई प्रस्तावों पर मतदान के दौरान अनुपस्थित रहा। इससे कुछ असहज भी लगा। अब बचा भारत जो दोनों देशों के साथ नजदीकी संबंधों के चलते युद्ध की समाप्ति में अहम भूमिका निभा सकता है। लेकिन यह तभी संभव है जब रूस और यूक्रेन बातचीत के लिए एक मंच पर आएं और वह भी बिना किसी शर्त के। इस संघर्ष की समाप्ति के सफल प्रयास के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय को दो ही बातें ध्यान में रखनी होंगी- पहली, यूक्रेन की क्षेत्रीय अखंडता और दूसरी, रूस के सुरक्षा हित।