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विशेष लेख: क्या संयुक्त राष्ट्र की सख्ती से तालिबान पर अंकुश लगेगा?

दिक्कत यह है कि तालिबान मुकम्मल तस्वीर देखना ही नहीं चाहता। इसके बजाय काबुल में शासन पर लगाए गए प्रतिबंधों के लिए वह अंतरराष्ट्रीय समुदाय पर ही दोषारोपण करता रहता है। हालांकि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे कुछ क्षेत्रों में महिलाओं को काम की अनुमति तालिबान ने दी है।

Photo by Ehimetalor Akhere Unuabona / Unsplash

अफगानिस्तान को महिलाओं और बच्चियों के लिहाज से दुनिया का सबसे दमनकारी देश माना गया है। तालिबान के फतवों ने इस मुल्क पर यह तोहमत लगवाई है। ऐसे में खबर है कि संयुक्त राष्ट्र और इसकी कार्यात्मक एजेंसियों के कारिंदे अगले महीने किसी समय अफगानिस्तान का रुख कर सकते हैं क्योंकि तालिबान ने एक यह प्रतिबंध भी जारी किया है कि महिलाएं अंतरराष्ट्रीय संगठन के लिए काम नहीं कर सकतीं। अब अगर तालिबान की सत्ता यह प्रतिबंध वापस नहीं लेती तो अंतरराष्ट्रीय संगठन के कदम अफगान की धरती पर पड़ेगे और इसे लेकर वहां की हुकूमत खुद को किसी तरह का दिलासा नहीं दे सकती, बल्कि असहज ही होगी।

आधी आबादी को कुछ चीजों से वंचित कर देना केवल एक आर्थिक मुद्दा नहीं है बल्कि यह प्राथमिक मानवाधिकारों में से एक है जिसके लिए सभी लोग तरसते, कामना करते हैं। लेकिन तालिबान को यह बात तब से ही समझ नहीं आ रही, जबसे उसने अफगानिस्तान की सत्ता प कब्जा किया है। यानी अगस्त, 2021 से। सत्ता के अधिग्रहण के समय से ही और एक व्यवस्था के रूप में तालिबान महिलाओं और बच्चियों की भूमिका को कमतर मानता रहा है। महिलाओं को अंतरराष्ट्रीय संगठन या गैर सरकारी संगठन में काम न करने देने का फरमान भी उसकी सत्ता के दमनकारी चरित्र पर मुहर है। अफगानिस्तान की धरती पर अमेरिका और नाटो की 'सैन्य सत्ता' भी रही। दुनिया में इसकी निंदा भी हुई। लेकिन तब भी वहां के लोगों ने यह एक बात अनिच्छा से ही स्वीकार की कि एक चीज जिसका उस समय भी सभी ने आनंद लिया वह थी स्वतंत्रता। अनिवार्य रूप से स्वीकार्य नियमों और मानदंडों के दायरे में कुछ भी करने की आजादी। भले उस पर पहरेदारी थी।

यह वास्तव में एक दयनीय दृश्य है कि समाज के एक जीवंत वर्ग, महिलाओं और बच्चियों की किसी न किसी बहाने निंदा की जाती है। उनके पर कतरे जाते हैं। दूसरी ओर काबुल में अधिनायकवादी शासन का यह तर्क कि बड़े पैमाने पर दुनिया को एक चीज पर केंद्रित नहीं किया जाना चाहिए बल्कि आर्थिक संकेतकों में एक छोटे से सुधार के माध्यम से देश में हो रही सकारात्मक चीजों को देखना चाहिए। खबरें निर्यात, मुद्रास्फीति और विनिमय दर स्थिरीकरण के मोर्चे पर कुछ सुधार की बात करती हैं लेकिन जनसंख्या वृद्धि के परिणामस्वरूप 2024 में प्रति व्यक्ति आय 359 अमेरिकी डॉलर से गिरकर 345 होने की आशंका है। दरअसल, दिक्कत यह है कि तालिबान मुकम्मल तस्वीर देखना ही नहीं चाहता। इसके बजाय काबुल में शासन पर लगाए गए प्रतिबंधों के लिए वह अंतरराष्ट्रीय समुदाय पर ही दोषारोपण करता रहता है। हालांकि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे कुछ क्षेत्रों में महिलाओं को काम की अनुमति तालिबान ने दी है। लेकिन उसका यह निर्णय अंतरिम या अस्थायी है और यही वजह है कि वहां संयुक्त राष्ट्र की कार्यात्मक एजेंसियों को मानवतावादी कार्य जारी रखने का आधार मिल गया है।

वैसे तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि इस तरह की छूट भी स्थायी नहीं है। ऐसे फैसलों पर कभी भी कोई फरमान आ जाता है। इसलिए कि तालिबान को महिला या मानव अधिकारों की शायद न तो समझ है और न परवाह। हालांकि अधिकांश देश मानव अधिकारों पर समान विचार रखते हैं लेकिन तालिबान के पचड़े में कोई नहीं पड़ना चाहता। अगर भारत जैसा पड़ोसी वहां दखल भी देना चाहे तो बहुत कुछ अफगानी अवाम पर निर्भर है। इसी वजह से अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियां ​​मध्य एशियाई राष्ट्र में मौजूद हैं। संयुक्त राष्ट्र को अफ़ग़ानिस्तान में देखना एक और दुखद तथा त्रासद अध्याय होगा। यहां तक कि यह मौजूदगी तालिबान को भी नहीं पचने वाली।

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