किस्सा-ए-पतंगबाजी: माशूक की संदेश वाहक तो अंग्रेजों को चिढ़ाने में मददगार
स्वतंत्रता दिवस पर अब तो भारत की राजधानी दिल्ली और एनसीआर में पतंगबाजी का दौर नजर आता है। छतों, पार्क, बॉलकनी पर लोग 15 अगस्त के दिन पतंगबाजी करते नजर आ जाएंगे। आपको बता दें कि पुराने दौर में पतंगबाजी के लिए पुरानी दिल्ली खासी मशहूर रही है। इलाके में यह शौक मुगलकाल से शुरू हुआ और आज तक जिंदा है। पतंगबाजी का जुनून अब थोड़ा कम हो गया है, वरना आज से तीस-चालीस साल पहले तक पतंगबाज इस खेल को लेकर बावले हुए जाते थे। बच्चों से लेकर बुजुर्गों में इस खेल को लेकर दीवानगी हुआ करती थी। आशिकी का जरिया भी बनती थी पतंग तो गुलामी के दौर में अंग्रेंजों को चिढ़ाने के लिए पतंगों का इस्तेमाल किया जाता था।
पुरानी दिल्ली का लाल कुआं बाजार सदियों से पतंग, मांझा, सद्दी, चर्खी आदि का थोक व रिटेल का बाजार है। अगस्त का महीना शुरू होते ही यह बाजार गुलजार हो जाता है। यहां की कुछ दुकानों पर साल भर पतंगे बिकती हैं, लेकिन 15 अगस्त आते-आते अनेकों दुकानों पर यह कारोबार शुरू हो जाता है। आम लोग तो इस बाजार से पतंग आदि खरीदते भी हैं, इसके अलावा दूसरे इलाकों में पतंग बेचने वाले भी लाल कुआं से खरीदारी करने आते हैं। पतंग और उससे जुड़ा सामान यहां काफी कम कीमत पर मिल जाता है। इसलिए पतंगबाज को लाल कुआं का यह बाजार लुभाता है।
पुरानी दिल्ली के मुहल्लों और कटरों की छतों पर आज भी पतंगबाजी जारी है। लेकिन पुराने दौर में मजा कुछ और था। उस वक्त छतों पर मजमा जुटता था। लड़के पतंगबाजी करते और बच्चे व लड़कियां भी छतों पर चढ़कर उनका हौसंला बढ़ातीं। छतों के नीचे से बुजुर्ग चिल्ला रहे हैं कि देखो गिर न जाना, लेकिन पेंच लड़ना शुरू हुए तो वह भी आंखें चुंधियाते हुए उसे देखने लग जाते। अगर अपने लड़के की पतंग कट गई तो बुजुर्ग उसे मोटी मोटी गालियां दे रहे हैं। और अगर लड़के ने दूसरे की पतंग काट दी है तो उसे शाबासी मिलती। कभी कभी इनाम-इकराम भी मिलता था।
पुरानी दिल्ली की हवेलियों, कटरों और मोहल्लों की छतों पर चलने वाली पतंगबाजी कभी-कभी आशिकी का जरिया भी बन जाती थी। पुराने दौर में पतंग के कन्नों या डोर पर खत फंसाकर उसे माशूक तक पहुंचाने का प्रयास होता था। माशूक तक पतंग पहुंच गई तो इश्क परवान चढ़ने का मौका मिल जाताा, लेकिन अगर वही खत माशूका के भाई या चाचा ने पकड़ लिया तो बवाल मच जाता था। खत भेजने वाले लड़के की पिटाई तक हो जाती। गालियों का दौर चलता । बाद में बड़े-बुजर्ग मसले तो किसी न किसी तरह निपटा देते थे।