आपका दिल दूसरों के दुख के लिए खुला नहीं है, आपकी साधना व्यर्थ है
आप बहुत बड़े धार्मिक आचरण वाले व्यक्ति हो सकते हैं। हो सकता है कि आप दान-पुण्य भी करते हों। रोज योगाभ्यास, ध्यान, प्राणायाम, जप आदि साधाना करते होंगे। लेकिन क्या आपका दिल दूसरों के लिए धड़कता है? क्या आप अपने आसपास पीड़ित लोगों की चिंता करते हैं? उनके दुख में साथी होते हैं? अगर नहीं तो आप आध्यात्मिक नहीं है, आपकी साधाना का कोई मूल्य नहीं है।
दूसरों की सेवा करना आध्यात्मिक जीवन की सीढ़ी है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण निष्काम सेवा और निष्काम कर्मयोग के माध्यम से यही बातें बता रहे हैं। निष्काम सेवा, आत्म-परिवर्तन के लिए, आत्म जागरण के लिए आवश्यक है। इसलिए निस्वार्थ सेवा का मतलब सिर्फ काम नहीं है, आपके दिल में इसके लिए एक भावना होनी चाहिए।
लेकिन लोग पैसे, पद और सम्मान के पीछे भागने में इतने व्यस्त हैं कि उनके लिए निस्वार्थ सेवा के लिए समय ही नहीं है। अगर वे कुछ करते भी हैं तो उसके पीछे कोई न कोई उद्देश्य होता है। वे दो-चार लोगों को खाना खिलाकर, या कुछ अन्य काम कर अखबारों में फोटो छपवाते हैं। तो फिर ये आपके आध्यात्मिक यात्रा की सीढ़ी नहीं हो सकती है। साधाना के मार्ग में इसका कोई मूल्य नहीं है।
आप धर्मस्थल जा सकते हैं, लेकिन वे केवल कुछ समय के लिए मन को शांत करते हैं। एक बदलाव लाने के लिए आपको अपने दिमाग और अपनी भावनाओं को शामिल करने की आवश्यकता है। इसके लिए आपको एक प्रणाली की आवश्यकता है। वह है मन को ज़रूरतमंदों की सेवा करने, दूसरों की समस्याओं का पता लगाने और मदद की पेशकश करने में आनंद का अनुभव करें। चाहे आप युवा हों या बूढ़े, अमीर हों या गरीब, सक्षम हों या सक्षम नहीं, दूसरों के लिए कुछ तो कर ही सकते हैं।
जब तक आपका दिल दूसरों के दुख के लिए खुला नहीं होगा, तब तक आपकी साधना व्यर्थ होगी, जैसे एक उलटे घड़े में पानी डालना। आप दूसरों के लिए जो भी सेवा करते हैं वह आपके स्वयं को शुद्ध करने में मदद करता है। निस्वार्थ सेवा साबून का काम करती है और कर्म की गंदगी को धो देती है। इसलिए संसार में रहते हुए आध्यात्मिक जीवन का अनुभव करने के लिए, अपने दायरे को बढ़ाएं। धर्म और अध्यात्म इस संसार से अलग नहीं है।
जरा विचार करें, क्या नदी अपना पानी खुद पीता है? क्या फल और सब्जियां खुद खाती हैं? नहीं, वे यह सब हमें देते हैं। और नदी इस काम के लिए इतराती भी नहीं है। यही परमार्थ है। निस्वार्थ भाव से दूसरों की सेवा करना, बिना किसी उद्देश्य के दूसरों के लिए अच्छे कार्य करना ही ईश्वर की सच्ची आराधना है। निस्वार्थ भाव से दूसरों के हित के बारे में सोचना ईश्वर के बारे में सोचना है। दूसरों की पूजा करना ईश्वर की पूजा करना है। अगर आप आध्यात्मिक यात्रा पर सफर करना चाहते हैं तो इसकी अवहेलना नहीं कर सकते हैं।