ह्यूमन राइट्स वॉच की गलतबयानी, चीन का मद और भारत का कद

नोबेल पुरस्कार विजेता गैर-लाभकारी संस्था ह्यूमन राइट्स वॉच (HRW) ने हाल ही में पश्चिमी देशों के लिए एक चेतावनी जारी की है। HRW ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि अपने कारखानों या आपूर्ति श्रृंखलाओं को चीन से बाहर और भारत में स्थानांतरित करने का कोई भी इरादा भारत सरकार और उसके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने हथियार डालने जैसा हो सकता है।

इसलिए क्योंकि HRW को दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र यानी भारत में अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव के मामलों में बढ़ोतरी दिखाई दे रही है। भारतीय  मीडिया में इस भेदभाव से जुड़ी खबरें कम ही सुर्खियां बनी हैं लेकिन कुछ जगह हैं। ऐसे में यह कल्पना करना आवश्यक है कि इस तरह की राय न केवल उदार लोकतंत्र के आदर्शों के लिए हानिकारक है बल्कि इरादतन या गैर-इरादतन गुप्त रूप से इस ग्रह के सबसे क्रूर राष्ट्र का समर्थन करती है। 2020 में HRW ने चीन में मानवाधिकारों की दयनीय स्थिति के बारे में चेतावनी दी थी और कहा था कि चीन की सरकार मानवाधिकारों को एक अस्तित्वगत खतरे के रूप में देखती है। दुर्भाग्य से चीन में लगातार बिगड़ती गई है। हालांकि HRW की जानकारी में खोट हो सकती है क्योंकि चीन में ऐसे संगठनों पर प्रतिबंध है।

चीन की आलोचना करने वाली 2020 की उस रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि ड्रेगन अपने उइगर मुसलमानों के साथ कैसा व्यवहार करता है। दुर्भाग्य से बीते तीन वर्षों में चीन का मानवाधिकार रिकॉर्ड बिगड़ा ही है और वहां जबरन क़ैद, अतिरिक्त-न्यायिक हत्याएं व जबरिया नसबंदी बड़े पैमाने पर व्याप्त है। इन मुसलमानों से कड़ा श्र्म कराया जाता है। प्रताड़ना और शोषण के चलते सैकड़ों लोग अपना जीवन गंवा चुके हैं। अल्पसंख्यक ही नहीं, चीन का कोई भी नागरिक किसी भी स्तर पर मानव अधिकारों की जद में नहीं है। जब चीन ने महामारी के दौरान अपनी अतार्किक कोविड नीति लागू की तो मानवाधिकार हनन वाला चेहरा पूरी तरह खुलकर सामने आ गया। वाल स्ट्रीट जर्नल ने खबर दी थी कि किस तरह एक अपार्टमैंट में एक बच्चे सहित 10 लोग जल मरे। इसलिए कि लॉकडाउन और क्वारंटीन नियमों में क्रूरता की हद तक सख्ती थी। सैकड़ों लोग भूख और घर की चारदीवारी में कैदियों की मानिंद मर गए। यह दुनिया का एकमात्र देश है जिसका विरोध करने वाले छात्रों पर बख्तरबंद टैंक चलाकर विरोध प्रदर्शनों को कुचलने का शर्मनाक इतिहास रहा है। चीन का यह दुर्व्यवहार उसके असहाय नागरिकों तक ही सीमित नहीं है। यह उसके पड़ोसी मुल्कों तक जाता है। ताइवान और भारत इस विस्तारवादी मानसिकता के शिकार रहे हैं।

कई लोकतांत्रिक देशों की तरह भारत सरकार के पास नागरिक स्वतंत्रता में सुधार की गुंजाइश है। एक लोकतांत्रिक ढांचे में अल्पसंख्यकों के अधिकारों का सम्मान किया जाना चाहिेए।
यह रिपोर्ट 'राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों' की आड़ में भारतीय संस्थानों द्वारा बड़े पैमाने पर विदेशी-वित्तपोषित गैर सरकारी संगठनों पर सरकारी छापों की ओर भी ध्यान आकर्षित करती है। हालांकि अगर इन छापों की जरूरत साबित करने वाली परिस्थितियां असंवैधानिक हैं और मानवाधिकारों का उल्लंघन करती हैं तो पीड़ित भारतीय जन न्यायपालिका के दरवाजे खटखटा सकते हैं क्योंकि लोकतंत्र में न्यायपालिका एक निष्पक्ष शक्ति है। भारत में जब-जब नागरिक स्वतंत्रता पर आंच आई है तो अदालतों ने स्वत: संज्ञान लेकर अनेक प्रतिष्ठानों को जवाबदेह ठहराया है। अदालतों ने सरकार को भी कठघरे में खड़ा किया है। तो भारत में नागरिक स्वतंत्रता का संकट है तो अवश्य लेकिन इसके बाद भी इस देश को जो चीज महान बनाती है वह यह है कि भारत अब भी एक लोकतांत्रिक देश है।

भारत की तरह ही अन्य लोकतांत्रिक देशों में दक्षिणपंथी या धुर-दक्षिणपंथी सरकारें हैं। जैसे कि इजराइल और इटली में। लेकिन ये सारे देश चीन से बेहतर हैं क्योंकि उनका लोकतांत्रिक ढांचा सत्ता-संतुलन सुनिश्चत करता है। भारत में विपक्षी दलों से किसी भी लोकतंत्र में परिपक्व भूमिका निभाने की अपेक्षा की जाती है। विपक्षी दलों को किसी भी नीतिगत खामी को सामने लाना चाहिए और उसे बदलने पर बल देना चाहिए। स्वस्थ लोकतंत्र का यही गुण है। विपक्ष चुनी हुई सरकार को नियंत्रण और संतुलन देता है। राजनीतिक विद्वेष के चलते कई बार नेताओं की अल्पज्ञता और अनुभवहीनता देश को बदनाम करती है। मगर निवेशकों को बारंबार आश्वस्त करने के लिए विपक्ष और सरकार को एक साथ कदमताल करते हुए यह दर्शाना चाहिए कि देश में व्यापार करना सुरक्षित है। चीन और भारत के मानवाधिकारों के रिकॉर्ड के बीच की विशाल खाई को देखते हुए पश्चिमी जगत को HRW के अनुरोध की बेरुखी को देखना जो दर्शा रहा है कि चीन का समर्थन किया जाए और भारत को नजरअंदाज।

इन सूरत-ए-हाल में कई विशेषज्ञों ने ठीक ही कहा है कि कंपनियां केवल मानवाधिकारों की चिंताओं के आधार पर अपनी आपूर्ति श्रृंखला को भारत में स्थानांतरित नहीं करेंगी। अगर उन्हे ऐसा करना होता तो कब का हो चुका होता क्योंकि चीन का मानवाधिकार रिकॉर्ड तो माओ काल से ही काला रहा है। कुछ भी करने से पहले कंपनियां कई बार और कई आधार पर सोचती हैं। वे देखती हैं कि देश विशेष में व्यापार करना कितना सहज-सरल होगा। उस देश की आर्थिक नीतियां कैसी हैं। वहां कंपनी के विकास की क्या क्षमता-संभावनाएं हैं इत्यादि। आजादी के बाद से ही भारत लालफीताशाही, नौकरशाही की जकड़न और लोकतांत्रिक खामियों के चलते उपेक्षित रहा। जबकि साम्यवादी चीन ने मानवाधिकारों के प्रति कम सम्मान के बावजूद सीपीसी के फरमानों को पूरा न करने वाले अधिकारियों की हत्या करके, उन्हें अपंग बनाकर या जेल में डालकर इन विकारों से छुटकारा पा लिया। मानो उसने कोई जादू की छड़ी घुमाई हो। हालांकि पिछले दशक में भारत में चीजें बदली हैं। मतदाताओं के लिए जिम्मेदार और अधिक कुशल सरकारी तंत्र के चलते ही यह बदलाव संभव हुआ।

HRW की आलोचना वास्तविक मानवाधिकारों के दुरुपयोग के प्रति इसके दुराग्रह के चलते भी की गई है। इसमें "ब्लैक लाइव्स मैटर" आंदोलन के दौरान अमेरिकी सरकार के प्रति उसका रुख शामिल है। दुनिया के कुछेक मौजूदा उदार लोकतंत्रों में से एक भारत को नीचा दिखाने की इसकी वर्तमान कवायद, विशेष रूप से चीन की तुलना में, न केवल मनमानी है बल्कि ऐसी दुष्ट लेकिन क्रूर शक्तियों के हाथों में खेलने की एक खतरनाक मिसाल का संकेत भी देती है। भारत या किसी भी अन्य लोकतंत्र के पास अपने ढांचे में ही मानव मूल्यों की बुनियादी संरचनाएं हैं। वह किसी भी स्थिति में न तो चीन जितना क्रूर हो सकता और न ही मानवाधिकारों के मामले में इतना गिर सकता। अब समय आ गया है कि पश्चिमी निवेश का हर छोटा हिस्सा चीन से बाहर निकालकर वहां ले जाया जाए जहां मानवीय सम्मान है। दुखद यह है कि जीवनरक्षक एंटीबायोटिक्स से लेकर कपड़े और छोटी मशीनरी तक अमेरिका में चीन से आते हैं। अगर दुनिया के हालात और सोच में बदलाव न आया तो एक दिन अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों को चीन की ब्लैकमेलिंग की कीमत चुकानी पड़ेगी। इसीलिए HRW की विवादास्पद सलाह एक विराट परिदृश्य की पूरी तरह अनदेखी करती है।

लेखक गैर लाभकारी अमेरिकन एकेडमी फॉर योगा इन मेडिसिन के अध्यक्ष हैं। आप से यहां संपर्क किया जा सकता है:- ibr@ibasuray.com