विश्व में अपनापन कैसे हासिल कर पाएगी हिंदी?
भारतीयों विशेषकर हिंदी भाषियों से समृद्ध देश फिजी में हाल ही में विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन किया गया। कोई दो-राय नहीं कि इस बार हिंदी सम्मेलन की खूब चर्चा हुई और वहां हिंदी साहित्यकारों के दबदबे को दरकिनार कर उसे कृत्रिम मेधा (Artificial Intelligence) की भाषा बनाने पर बल दिया गया। कहा गया कि इसका उपयोग करके हिंदी सही मायने में अंतरराष्ट्रीय भाषा का दर्जा पा सकती है। लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्या हिंदी को भारत में ही वह दर्जा प्राप्त है जो अन्य देशों में उसकी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा (राष्ट्रभाषा) को मिलता है। सवाल यह भी है कि भारत में हिंदी ‘कामकाज’ की भाषा बन गई है या अभी वक्त लगेगा।
एक बहुत ही सफल १२वे #विश्वहिन्दीसम्मेलन की मेजबानी के लिए फिजी सरकार का बहुत-बहुत धन्यवाद।
— Dr. S. Jaishankar (@DrSJaishankar) February 18, 2023
Thank the Government of Fiji for co-hosting the very successful 12th #VishwaHindiSammelan.
A very memorable first visit. Watch: pic.twitter.com/ILLX7JnMsW
फिजी के नांदी शहर में आयोजित इस विश्व हिंदी सम्मेलन से एक बात तो उभरकर आई कि पहले आयोजित ऐसे सम्मेलनों में कुछ कथित प्रबुद्ध लोगों का वर्चस्व रहता था, वैसा इस बार नहीं हो पाया। इस सम्मेलन में गंभीरतापूर्वक हिंदी को विश्व की भाषा बनाने पर चर्चा की गई। भारत के विदेश मंत्रालय और फिजी सरकार के मेल से आयोजित सम्मेलन में हिंदी के करीब 1200 विद्वान व लेखकों ने भाग लिया। सम्मेलन की थीम 'हिंदी-पारंपरिक ज्ञान से कृत्रिम बुद्धिमत्ता (Artificial Intelligence) तक' रखी गई। तीन दिन के इस सम्मेलन में 10 समानांतर सत्र हुए, जिनमें गिरमिटिया देशों में हिंदी, सूचना प्रौद्योगिकी और 21वीं सदी में हिंदी, मीडिया और हिंदी को लेकर वैश्विक धारणा और अनुवाद (Translation) पर विचार-विमर्श हुआ। सम्मेलन में कहा गया कि आधुनिक तकनीक का प्रयोग करते हुए हिंदी मीडिया, सिनेमा और जनसंचार के विविध माध्यमों ने हिंदी को विश्व भाषा का रूप दिया जा सकता है।
इसमें दो-राय नहीं कि भारत समेत विश्व के कई देशों में हिंदी का प्रसार-प्रचार बढ़ा है। उसका कारण यह है कि हिंदी बोलने वालों ने अपनी भाषा को बोलने में अब हिचकिचाहट त्याग दी है। धीरे-धीरे ही सही हिंदी देश-विदेश के कारोबार से भी जुड़ रही है। इसी का परिणाम यह निकला है कि हिंदी बोलने वालों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। भारतीय इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि विश्व में हिंदी का स्थान तीसरे नंबर पर है। प्रवासी भारतीय भी हिंदी को लेकर उत्सुक हैं। वे इसे फैलाने के लिे पूरा प्रयास कर रहे हैं। लेकिन सवाल यही है कि भारत में हिंदी को वह गरिमा और अपनापन मिल पाएगा जो किसी भी देश की राष्ट्रभाषा को मिलता है? सर्वविदित है कि कुछ ‘कारणों’ से भारत देश में आज भी हिंदी राष्ट्रभाषा के बजाय राजभाषा के रूप में जानी जाती है। अहिंदी भाषी राज्यों को यह अधिकार है कि वे अपनी मातृभाषा को सरकारी भाषा के रूप में प्रयोग कर सकते हैं। ऐसे राज्यों में त्रिभाषा फार्मूला लागू किया गया है। इसमें वहां की भाषा के अलावा हिंदी व अंग्रेजी शामिल है।
इस बात को लेकर आज भी आरोप लगते हैं कि भारत में बुद्धिजीवियों की एक लॉबी ने हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर सदा अड़चनें पैदा करने का प्रयास किया, जो आज भी जारी है। इसमें बड़े पदों पर बैठे नौकरशाह भी शामिल हैं। वैसे जो हिंदी आज हम बोलते हैं, उसका इतिहास लगभग 100 पुराना है। इसे सर्वमान्य भाषा बनने में अभी और समय लगेगा। लेकिन ऐसी भाषा बनने की रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा अनुवाद की हिंदी है। अंग्रेजी या दूसरी भाषाओं के आवश्यक ज्ञान या तकनीकी जानकारी का हिंदी में जो अनुवाद हो रहा है, वह इतना अधिक जटिल और दुरूह हो रहा है कि उसे समझना मुश्किल है। उसके लिए या तो शब्दकोश साथ रखना होगा या इंग्लिश भाषा का सहारा लेना पड़ेगा। दुख की बात है कि यह षडयंत्र आज भी जारी है। बार-बार मांग उठती है कि जब चीन, जापान में अपनी भाषा में पूरा ज्ञान और तकनीकी सिस्टम पढ़ा सकता है तो हिंदी में ऐसा क्यों नहीं हो रहा है।
हिंदी को लेकर कई अवरोध हैं, कई प्रकार के स्वार्थ हैं और तीसरे यह कि भारत के लोग अपनी भाषा को लेकर वह गर्व और राष्ट्रीयता की बात नहीं कर पाते जैसा दूसरे देशों में होता है। हिंदी भाषा को लेकर भारत में राज्यों के अपने झगड़े हैं, जो जब-तब तनाव बढ़ाते हैं। इन सबके बावजूद हिंदी का प्रसार-प्रचार हो रहा है। उसके पीछे सबसे बड़ा करण यह है कि हिंदी अब धीरे-धीरे रोजगार, कामकाज और कारोबार से जुड़ रही है। भारत सरकार से जुड़े लोग और नौकरी देने वाले लोग भी हिंदी को लेकर गंभीरता दिखा रहे हैं। बड़ी बात यह है कि विदेशों में भी हिंदी का गंभीरता से प्रचार हो रहा है। यानी प्राकृतिक और मौलिक तरीके से हिंदी आगे बढ़ रही है। बस आवश्यकता इस बात की है कि हिंदी को उसके मठाधीशों से बचाया जाए और उन नेताओं और अफसरशाहों से दूर रखा जाए तो अपने कथित स्वार्थो के चलते हिंदी को पिछड़ी भाषा ही बनाए रखना चाहते हैं। इसे कूटनीति की भाषा भी बनाना होगा और भारत के नेताओं और अफसरों को विदेश में हिंदी बोलकर एक अलग ही विश्वास पैदा करना होगा। तब संभव है कि हिंदी विश्व भाषा बनने की ओर आगे बढ़ पाए। रास्ता कठिन है कि लेकिन असंभव नहीं।