विशेष लेख: दूर होती नहीं दिख रही नफरत!

न्यूयॉर्क में एक सड़क दुर्घटना के बाद बुजुर्ग सिख जसमेर सिंह की मौत इस बात की फिर तस्दीक करती है कि हिंसा बेकाबू है। हालांकि दुर्घटना को मामूली बताया गया मगर इससे क्या फर्क पड़ता है। प्रभावित पक्ष का गुस्सा इसलिए भी फूटा क्योंकि दूसरा व्यक्ति 'अलग' था। पीड़ित पक्ष का जोर इस बात पर है कि स्थानीय, राज्य और संघीय अधिकारी घटना को घृणा अपराध मानकर जांच करें जबकि कोशिश यह की जा रही है कि पूरे मामले को रोड रेज बताकर ठंडे बस्ते में डाल दिया जाए।

FBI के आंकड़े दर्शाते हैं कि समग्र रूप से देखने पर अमेरिका में हिंसक अपराधों में गिरावट आई है लेकिन घृणा अपराधों में 7 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। इनमें से अधिकांश मामले अफ्रीकी-अमेरिकियों के खिलाफ लक्षित थे और 2022 के आंकड़ों में भी हिस्पैनिक्स के खिलाफ हिंसा में तेज वृद्धि देखी गई। लेकिन यह पूरी कहानी नहीं है। पता चलता है कि विभिन्न यौन रुझान वाले लोगों को लक्षित किया गया है और लगता है कि LGBTQ समुदाय को भी निशाने पर रखा गया है। हिंसा का शिकार यहूदी, मुसलमान और जसमेर सिंह जैसे लोग भी हैं।

इस तरह की तमाम घटनाओं को लेकर अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन का कहना है कि FBI के आंकड़े याद दिलाते हैं कि हिंसा कभी खत्म नहीं होती, बस छिप जाती है। यदि अमेरिका में सिख 9/11 के बाद सबसे पहले निशाना बनाए गए लोगों में से एक थे तो दक्षिण एशियाई लोग न्यू जर्सी के जर्सी शहर में 'डॉटबस्टर्स' नामक एक नस्लवादी समूह के साथ अपनी 'मुठभेड़' के दिनों को याद कर भयभीत हो उठते हैं। हिंसा का वह सिलसिला 1975 से शुरू हुआ और भारतीय-अमेरिकियों को 20 वर्ष तक आतंकित करता रहा। यहां डॉट का आशय उस बिंदी से है जो कई दक्षिण एशियाई महिलाएं अपने माथे पर लगाती हैं। यही नहीं 'डॉटबस्टर्स' ने सिखों की आस्था से जुड़ी पगड़ी को भी अपमान की नजर से देखा और उसे नफरत भरा नाम दिया।

इधर, इजराइल पर हमास के आतंकी हमले के बाद छह साल के फिलिस्तीनी-अमेरिकी लड़के की हत्या से भी अमेरिका उतना ही स्तब्ध था। अल-फयूम की हत्या एक घृणा अपराध था क्योंकि वह फिलिस्तीनी था। बहरहाल, FBI अध्ययन का एक चिंताजनक पहलू यह है कि 2022 का डेटा अभी अधूरा है क्योंकि रिपोर्टिंग देश भर में केवल तीन चौथाई पुलिस एजेंसियों के आंकड़ों पर आधारित थी। यह दुखद है कि 68 साल के एक व्यक्ति और 6 साल के बच्चे की मौत को 2023 के आंकड़ों के रूप में देखा जाएगा क्योंकि समाज असहाय और निराशाजनक स्थिति में उस आग को बुझाने के तरीके तलाश कर रहा है जो मानवता को लील रही है। यहां इस बात को ध्यान में रखने की आवश्यकता है कि घृणा अपराध पश्चिमी दुनिया में ही नहीं, कहीं भी हो सकते हैं। वर्ष 1984 में भारत में सिख समुदाय के सैकड़ों निर्दोष महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों को क्रूर भीड़ ने इसलिए मौत के घाट उतार दिया क्योंकि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या उनके ही सुरक्षाकर्मी ने की थी और इत्तेफाक से वह सिख था। इन घृणा अपराधों का अधिक घृणित हिस्सा तथाकथित पश्चिमी सभ्य दुनिया की उस 'आधिकारिक स्वीकृति' से आता है जिसमें इस बात पर जोर दिया जाता है कि अधिकांश बकवास और हिंसा को नजरअंदाज किया जाना चाहिए या स्वतंत्र भाषण और स्वतंत्र अभिव्यक्ति के रूप में स्वीकार कर यूं ही जाने देना चाहिए।