क्या आप जानते हैं कि मन सदा आनंद और खुशी की ओर ही क्यों भागता है?

क्या आप जानते हैं कि आपका मन सदा आनंद, खुशी की ओर ही क्यों भागता है? हर कोई कष्टों से मुक्त होकर सुख की कामना क्यों करते हैं? जब हमारा अस्तित्व आनंद की तलाश में है तो फिर हमें कष्ट क्यों मिलता है जीवन में? अगर आप इन सवालों पर विचार करेंगे तो एक बड़े रहस्य से पर्दा हट सकता है। मन सदा शाश्वत आनंद, अनंत शांति के लिए लालायित रहता है, क्योंकि मन ब्रह्म से पैदा होता है, जिसका स्वभाव सच्चिदानन्द, परम आनंद है। लेकिन हम जो रास्ता चुनते हैं, समस्या की जड़ वहीं है। यही कारण है कि पाना तो हम आनंद चाहते हैं, लेकिन मिलता विषाद है।

अध्यात्म हमें अपने स्वभाव की ओर ले जाता है। Photo by Animesh Bhattarai / Unsplash

आइए हम इन सवालों पर विचार करते हैं। दरअसल हम दुनिया की भौतिक वस्तुओं से उस परम आनंद को प्राप्त करने की कोशिश करते हैं, जो समय, स्थान और कारण से परे हैं। इसलिए हम असफल होते हैं और निराश हो जाते हैं। बहुत से लोग, धर्म और दर्शन का विशद अध्ययन करने के बाद भी यह नहीं जानते हैं कि उन्हें जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए क्या करना चाहिए। वे आशाओं, अपेक्षाओं, कार्यों और चिंताओं से बंधे रहते हैं। उन्हें पता नहीं है कि उनका जीवन हर पल गुजर रहा है।

योग शास्वत आनंद का मार्ग है। Photo by Brannon Naito / Unsplash

लेकिन एक परम चेतना है ब्रह्म, जो जन्महीन, मृत्युहीन, कालातीत है। सभी नामों और रूपों में यही छिपा हुआ है। अब सवाल ये है कि जो हमारी चेतना है, हमारा स्वभाव है, हम उससे परिचित क्यों नहीं हैं। दरअसल, ये हमारी बौद्धिक पहुंच में नहीं आ सकता है। लेकिन जिनके पास सूक्ष्म बुद्धि, शुद्ध बुद्धि है, ईर्ष्या, स्वार्थ और लालच से जो मुक्त है, वे अपने शुद्ध हृदय में इसे अनुभव कर सकते हैं। किसी के पास सबसे तेज बुद्धि हो सकती है और वह बड़ी-बड़ी डिग्रियां हासिल कर सकता है, लेकिन फिर भी वह अपने स्थूल बुद्धि की ताकत से अपने स्वभाव को समझ नहीं सकता है।

तो सवाल उठता है कि अपने स्वभाव को जानने का रास्ता क्या है? इसका उत्तर योग के पास है। योग साधना आपको अपनी ही उस स्थिति में स्थिर रहने के लिए तैयार करता है, जो आपका स्वभाव है। और जो सच्चिदानन्द है, परम आनंद है, वही आपका स्वभाव है। लेकिन साधना के शुरुआती दिनों में आपको दिक्कत हो सकती है। आपको लगेगा कि ये किस चक्कर में आप फंस गए हैं।

इसे एक उदाहरण से समझें कि अगर किसी कमरे को वर्षों तक बंद रखा जाए और फिर आप उसे खोलकर साफ करने की कोशिश करें तो कितनी धूल आएगी? कमर अंधकार, बदबू से भरा होगा। लेकिन धीरे-धीरे अच्छी तरीके से सफाई करते-करते वही कमरा रहने लायक हो जाता है। ठीक इसी प्रकार हमारा मन और शरीर है। और योग साधना आंतरिक सफाई का काम करती है।

वे जो आनंद के लिए बाहरी वस्तुओं पर निर्भर हैं, वे अपने परम आनंद के उस स्वभाव को पाने में असफल हो जाते हैं। लेकिन जो 'समता' से संपन्न है जो पसंद और नापसंद (राग द्वेष), उत्साह और अवसाद (हर्ष-शोक) से मुक्त है, वह परम शांति का आनंद लेता है। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने भगवद गीता में कहा कि समत्व ही योग है। वास्तव में इस समत्व को हासिल करना सर्वोच्च धन है। योगासन, प्राणायाम और ध्यान के अभ्यास से मन के इस संतुलन जिसे समत्व कहते हैं, हासिल किया जा सकता है।

इसलिए मन का संतुलन ही योग है। सब में एक ही परमात्मा को देखना ही योग है। सब में एक परमात्मा की सेवा करना ही योग है। बिना किसी फल की ईच्छा के अपने कर्तव्य का पालन करना ही योग है। सद्मार्ग पर चलना योग है। आप भगवद गीता की इस भावना को आत्मसात करें और अपने व्यावहारिक जीवन में इसका पालन करें।