उजास का पर्व दीपावली पूरी दुनिया को आकर्षित कर रहा है

भारत के साथ-साथ पूरे विश्व में प्रवासी भारतीयों के बीच मनाए जाने वाला दीपावली पर्व भी बदलती दुनिया के साथ अपनी ‘उजास’ बदल रहा है। अपनत्व, वैभव का यह पर्व कभी दीपक, रंगोली, दीपक, खील बताशों, फुलझड़ी और मिठाई के साथ एक अलग ही चमक बिखेरता था। इस पर्व में पुरानी परंपरा भी जारी है, लेकिन कारोबारी संबंधों को प्रगाढ़ बनाने का एक ‘उत्सव’ भी बन गया है। अब तो यह पर्व कॉन्टिनेंटल खानपान और गिफ्ट के लेन-देन में परिवर्तित हो चुका है।

भगवान राम जब लंका विजय कर अयोध्या आए थे तो उनकी अगवानी में दीपोत्सव आयोजित किया गया था। तब से ही यह त्योहार अनवरत मनाया जा रहा है। यह अलग बात है कि बदलते वक्त के साथ इसमें भी परिवर्तन होते गए। अगर हम आपको भारत में मनाए जा रहे इस पर्व के बदलाव की जानकारी दें तो अब तो यह पर्व ड्राई फ्रूट्स, चॉकलेट, कोल्ड ड्रिंक्स और महंगी मिठाईयों के साथ मनाया जा रहा है। गले मिलने का यह त्योहार अब ‘हैप्पी दीवाली’ में तब्दील हो चुका है। पहले दीवाली मनाने के लिए कई दिन पहले ही तैयारी शुरू हो जाती थी। किसी घर में पुताई चल रही है, तो कहीं पर बच्चों को खिलौने और कपड़े दिलाने के लिए भारी मशक्कत दिख रही है। कोई परिवार अपने पुराने घर को ही झाड़ फूंककर सजाने में लगा है तो किसी घर में लाए गए पलंग या अलमारी को सेट करने की कवायद चल रही है। अब तो ऐसा लगता है कि यह त्योहार सिर्फ एक दिन में ही सिमटकर रह गया है।

पूरी दुनिया को आकर्षित करता है दीपावली पर्व। Photo by Rahul Pandit / Unsplash

भारत में वर्षों से मनाए जा रहे इस पर्व के बारे में बात करें तो कभी वह भी समय था जब जब दीवाली दीपक, मोमबत्ती, खील बताशों और चीनी के बने खिलौनों के साथ मनती थी और पूजी भी जाती थी। आज से 20-30 साल पहले तक संयुक्त परिवारों के लोग गठरी भरकर खील और थैले भरकर बताशे और चीनी से बने खिलौने खरीदते थे। इन खिलौनों में हाथी, ऊंट, मोर की आकृतियां होती थी। मिठाई के नाम पर लड्डू और बर्फी ले ली जाती थी। दीवाली की रात पूरा परिवार लक्ष्मी की पूजा करता। उस दौर में खील का बड़ा घेरा बनाकर उसके बीच लक्ष्मी-गणेश बिठाए जाते और परिवार के बच्चे पूरे घर को मोमबत्ती और दीयों की रोशनी से जगमग करते। दीवाली पूजने के बाद इन दीयों को दूसरे के घरों में रखकर बड़े-बूढ़ो से आशीर्वाद लिया जाता और खील, बताशों और लड्डू से एक दूसरे का मुंह मीठा किया जाता। दीवाली के बाद ठंड भरी दोपहर में खील बताशों और चीनी के खिलौनों को खाने का आनंद ही अलग होता था। अब तो बच्चे इन्हें देखते ही नहीं है।

बीस-तीस वर्ष पहले की बात करें तो पूरे उत्तर भारत में दीपावली से दो-तीन दिन पूर्व ही झांझी और दशहरे के बाद टेसू का खेल शुरू हो जाता था। झांझी एक प्रकार से मिट्टी की लालटेन जैसी होती थी। झांझी के अंदर दीया जलाकर मोहल्ले या गांव की लड़कियां दूसरे परिवारों में झांझी मांगने जाती थी। यह एक प्रेम भरा अपनापन होता था। रात के समय होने वाले इस उत्सव में लड़कियां अपने बनाए गाने या लोकगीत गाती और लोग खुश होकर उस झांझी में पैसे डाल देते। इसी प्रकार लड़क़ों के लिए टेसू होता था। यह सरकंडों से बना जोकरनुमा डेढ़-दो फुट का पुतला होता था। रात के समय लडक़े इस टेसू के हाथ पर दीया सजा देते थे और घर-घर जाकर हो-हल्ला करते, बड़ों को हंसाने के लिए कुछ किस्से सुनाते तो कुछ कलाकारी दिखाते। बच्चों के इस रोचक व्यवहार पर खुश होकर लोग टेसू के दीये में पैसे डाल देते और बच्चों की बढिय़ा दीवाली मन जाती। उस वक्त यह क्रम  लगातार दो तीन दिनों में चलता था और शाम ढलते ही इलाके में बच्चों की धमाचौकड़ी मची रहती थी।

भारतीय प्रवासी भी इस पर्व को लेकर गंभीर हैं। Photo by Roberto Lopez / Unsplash

विदेशों में भी दीपावली उत्सव वर्षों से पूरे अपनेपन और वैभवता के साथ मनाया जा रहा है। भारत से बाहर जाकर बसे प्रवासी भारतीय आज भी उमंग और उत्साह से इस पर्व को मना रहे हैं। इस पर्व के परोक्ष में उन्होंने भारतीय संस्कृति व परंपरा को आज भी कायम रखा हुआ है। विशेष बात यह है कि अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा आदि देशों में, जहां की सरकार में भारतीयों की उपस्थिति मौजूद है, वहां तो दीपावली का उत्सव खासे उत्साह से मनाया जा रहा है। वहां की सरकारें व लोकल प्रशासन भी इनमें विशेष भूमिका निभा रहा है। ऐसा लग रहा है कि दीपावली का ग्लोबलाइजेशन हो चुका है और पूरा विश्व इसकी अगवानी में जुटा है।