अमेरिकी यात्रा की तैयारी- भाग -5/चौथा रत्न- खादी वस्त्र
अथर्ववेद में “माता भूमि:” कहा गया है अर्थात् धरती हम सबकी मां है। हमारा अस्तित्व भूमि से ही है। हमें जीवित रहने के लिए जिन पदार्थों की आवश्यकता होती है वे सब हमें धरती से ही मिलते हैं। सम्पूर्ण विश्व की इस मां की रक्षा के लिए हमें कुछ आवश्यक नैतिक कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिए।
हमारी इस धरती मां की आयु अभी 2 अरब 36 करोड़ वर्ष शेष है। हमें इसे आने वाली करोड़ों पीढ़ियों के लिए सुरक्षित व अनुकूल रखना चाहिए। इसके लिए हमें भारतीय पूर्वजों से सीख लेने की आवश्यकता है। वे यथासम्भव प्राकृतिक वस्त्रों व वस्तुओं का उपयोग करते थे।
कपास की रूई से बने सूती वस्त्रों का चलन सर्वप्रथम भारत में ही हुआ था। यद्यपि ठाट-बाट से रहने वाले राजे-महाराजे यदा कदा रेशम के वस्त्र भी पहनते थे, किन्तु भारत का जनसामान्य प्रायः खादी ही पहनता था। उल्लेखनीय है कि भारत से पूरे विश्व में सूती वस्त्रों का निर्यात किया जाता था।
क्योंकि मुझे भारतीय संस्कृति का शिक्षक नियुक्त किया गया अतः मैंने अपने स्वभाव व संस्कृति के अनुरूप स्वदेशी पहनावे को प्राथमिकता दी। मेरा यह संकल्प था कि मुझे उस रंग में नहीं रंगना है जो इस पावन धरती को नुकसान पहुंचाने वाला हो। बल्कि मुझे एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करना होगा जो न केवल भटके हुए भारतीयों को बल्कि अन्य देश के नागरिकों को भी शिक्षा दे सके।