विशेष लेख: पारंपरिक संवाद और विलाप के बीच शुद्धि-अनुष्ठान के शंखनाद का समय
इन दिनों स्वाभाविक तौर पर सबका ध्यान तालीम और इससे सरोकार रखने वाले क्षेत्रों पर है। मीडिया सहित सबकी तवज्जो इसी पर है। संवाद का विषय हैं- बोर्ड परीक्षाओं के नतीजे, इंजीनियरिंग-मेडिकल व अन्य क्षेत्रों के लिए होने वाली प्रतियोगी परीक्षाएं। और हां...विदेश जाकर उच्चतर शिक्षा हासिल करने के आकांक्षी छात्रों के लिए वीजा की भी लोगों को फिक्र है। इसके साथ ही इस मौसम में चर्चा का एक विषय यह भी है कि भारत की शिक्षा में सही-गलत क्या हैं। लगे हाथ इस पर भी बात हो जाती है कि ब्रेन ड्रेन यानी प्रतिभा पलायन पर विराम कैसे लगाया जाए।
बेशक, आर्थिक और सामाजिक रूप से वंचित बच्चे को योग्यता परीक्षा में कक्षा, राज्य या देश में शीर्ष पर आते हुए देखकर खुशी होती है। ऐसे में, वास्तव में उन युवा मन, माता-पिता, शिक्षकों और संस्थानों के प्रमुखों को साधुवाद जिन्हें कई मामलों में यह सब करने के लिए अपनी ही जेब की बार-बार 'तलाशी' लेनी पड़ती है। जरा सोचिए कि यह सब सरकारी या निगम के उन स्कूलों में हो सकता है जो कई बार उचित कक्षाओं, शिक्षकों और शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित रहते हैं।
पश्चिम और एशिया प्रशांत का शिक्षा और शिक्षण परिदृश्य सकल नामांकन अनुपात ही नहीं कई दृष्टिकोणों से जुदा है। मिसाल के तौर पर उत्तरी अमेरिका का गौरव प्राथमिक, मध्य और उच्च विद्यालयों में इसके निजी और विशिष्ट संस्थानों में नहीं है। यह उनके राज्य/काउंटी द्वारा वित्त-पोषित पब्लिक स्कूलों में है जो शिक्षा के संभ्रांत केंद्रों के बराबर या उससे बेहतर शिक्षा प्रदान करते हैं। और यही बात संयुक्त राज्य अमेरिका के अधिकांश विश्वविद्यालयों पर लागू होती है जिनमें से अधिकांश सरकारी खजाने पर निर्भर हैं। निसंदेह निजी संस्थाएं बंदोबस्ती (दान या निधि) पर फलती-फूलती हैं जो अपने आप में एक अलग कहानी है। कहा जाता है कि भारत में लगभग 1000 से अधिक विश्वविद्यालय और 50,000 कॉलेज हैं। लेकिन इनमें कुछ और जोड़ने से उस देश की शिक्षा गुणवत्ता में निखार नहीं लाया जा सकता जो एक समय ज्ञान के सार्वभौमिक केंद्र के रूप में विख्यात था।
न जाने क्यों और कैसे हमने रास्ता खो दिया। इसके लिए दोषारोपण चलता रहता है जो किसी काम आने वाला नहीं है। अगर यही सब चलता रहा तो यह घिसी-पिटी कवायद फिर से उन कदमों को स्थगित कर देगी जो एक ऐसी प्रणाली को ठीक करने के लिए उठाए जाने हैं जिसकी शुद्धि असंभव तो नहीं है। कुशाग्र मस्तिष्क वाले बच्चे रातोंरात पैदा नहीं होते। उनके लिए शुरुआत से ही नियोजित परवरिश की दरकार होती है। इस लिहाज से भारत जैसे देश में पब्लिक स्कूल कुछ अलग और बेहतर कर सकते हैं। ग्रामीण अथवा शहरी क्षेत्र में कहीं पर भी। लेकिन परिदृश्य को बदलने से लिए कुछ ऐसे सवालों से टकराना होगा जो खुद को चोट पहुंचाने वाले होंगे। जैसे कि शिक्षकों की भर्ती में घोटाला। सबसे पहले तो यही सुनिश्चित करना होगा कि शिक्षा के मंदिरों के पुजारी ही पाक-साफ हों। इसके लिए एक ऐसा तंत्र विकसित करना होगा जो भ्रष्टाचार की दीमक से मुक्त हो। जब तक ऐसा तंत्र विकसित नहीं होगा, दुनिया आगे निकलती रहेगी। और शुद्धि-यज्ञ शुरू करने के लिए सबसे अच्छी जगह सार्वजनिक किंडरगार्टन और प्राथमिक विद्यालय हैं।
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