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दक्षिण भारत का मंदिर, यहां पत्थर की भाषा, मनुष्य की भाषा से श्रेष्ठ है, जानिए क्यों

क्लोराइट, लैटराइट और खोंडलाइट पत्थर को तराश कर बनाई गई मंदिर की संरचना लोगों को विस्मय से भर देती है। ब्लैक पैगोडा के नाम से मशहूर इस मंदिर का डिजाइन तत्कालीन वास्तुकार बिशु महाराणा ने तैयार किया था और महाराज नरसिह्मदेव ने इसके निर्माण की जिम्मेदारी सिबेई सामंतराय महापात्रा को दी थी।

यूनिस्को के धरोहर स्थलों में शामिल है कोणार्क का सन टेम्पल।

भारत के पूर्वी तट पर स्थित एक मंदिर का स्वरूप 24 पहिए पर टिके रथ के समान है, यह मंदिर भगवान सूर्य को समर्पित है, जिसे कोणार्क के 'सन टेम्पल' के नाम से जाना जाता है। कोणार्क दो शब्दों कोन और अर्क (सूरज) से बना है, जिसका अर्थ है कोने का सूरज, ठीक वैसे ही यह मंदिर ओडिशा राज्य के पुरी शहर के पूर्वी कोने पर बसा हुआ है। मौजूदा मंदिर अभी जीर्ण अवस्था में पहुंच गया है लेकिन अभी भी विश्व को अपनी वास्तुकला से मुग्ध कर देता है और यही वजह है कि यूनिस्को ने 13वीं सदी के इस मंदिर को विश्व धरोहर स्थल में शामिल किया है।

कोणार्क को लेकर प्रसिद्ध है यह कथा

कोणार्क को आर्क क्षेत्र के रूप में जाना जाता है। दरअसल, ओडिशा के चार क्षेत्र हैं। इसको लेकर ऐसी किवंदतियां हैं कि जब गयासुर के वध के बाद भगवान विष्णु लौट रहे थे तो उन्होंने अपनी जीत के प्रतीक के रूप में अलग-अलग स्थानों में अपने चार आयुध (हथियार) को रखा था। उन्होंने पुरी में अपने शंख, भुवनेश्वर में चक्र, जाजपुर में गदा और कोणार्क में पद्म को रखा। इसलिए कोणार्क को पद्म क्षेत्र के रूप में भी जाना जाता है।

रथ का पहिया।

मंदिर बनाने में 1200 शिल्पकारों को लगे थे 13 वर्ष

मंदिर की खूबसूरती देखते हुए कभी कवीन्द्र रवीन्द्र नाथ टैगोर ने लिखा था, 'यहां पत्थर की भाषा, मनुष्य की भाषा से श्रेष्ठ है।' मंदिर का निर्माण गंगा वंश के प्रतापी सम्राट नरसिह्मदेवा प्रथम ने 1243 में शुरू करवाया था। इसे बनाने में 1200 शिल्पकारों को 13 वर्ष लग गए थे। चूंकि नरसिह्मदेव शासक सूर्य देव की उपासना करते थे इसलिए मंदिर को सूर्य का रथ माना जाता है। मंदिर के प्रत्येक पहिए का व्यास 10 फुट है और पहिए के साथ ही 7 घोड़े भी बनवाए गए थे।

क्लोराइट, लैटराइट और खोंडलाइट पत्थर को तराश कर बनाई गई मंदिर की संरचना लोगों को विस्मय से भर देती है। ब्लैक पैगोडा के नाम से मशहूर इस मंदिर का डिजाइन तत्कालीन वास्तुकार बिशु महाराणा ने तैयार किया था और महाराज नरसिह्मदेव ने इसके निर्माण की जिम्मेदारी सिबेई सामंतराय महापात्रा को दी थी। हालांकि, सूर्य को समर्पित मंदिर की मुख्य संरचना ढह गई है। आज 26 एकड़ के परिसर में जो सबसे बड़ी संरचना नजर आती है, वह है जगमोहन यानी मंदिर का सभागार।

सूर्य को समर्पित है कोणार्क मंदिर।

कोणार्क के परिसर में क्या है देखने लायक

मंदिर की इमारत भले ही ढह गई हो लेकिन 26 एकड़ के परिसर में आपको इसके अवशेष और देवता का सिंहासन देखने मिल सकता है। यहां आप रथ के तराशे हुए पहिए, युद्ध के घोड़े, हाथी, गज-सिंह, रथ को खींचने वाले सात घोड़े के दर्शन कर सकते हैं जो ओडिशा की वास्तुकला के प्रतीक हैं। परिसर के अंदर सन टेम्पल संग्रहालय मौजूद है जिसका संरक्षण आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया करता है। यहां का मुख्य आकर्षण सूर्य देवता की तीन तस्वीरें भी हैं जो सुबह, दोपहर और शाम सूर्य की रोशनी खींचने के लिए मंदिर की तीन दिशाओं में लगाई गई हैं।

रथ रूपी इस मंदिर में 24 पहिए हुआ करते थे। 

कब और कैसे पहुंचे ?

कोणार्क मंदिर घूमने का सबसे सही मौसम अक्टूबर से फरवरी के बीच का है क्योंकि यहां की गर्मी समस्या पैदा कर सकती है। सर्दियों में यहां ज्यादा ठंड नहीं पड़ती लेकिन आप चाहें तो  सर्दी के कपड़े साथ रख सकते हैं। मंदिर में भारतीय पर्यटकों को 10 रुपये में प्रवेश मिलता है और 18 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए प्रवेश निशुल्क है। ध्यान रखें कि ओडिशा के इस हिंदू मंदिर में हर धर्म के लोग प्रवेश कर सकते हैं और यहां फोटो खींचने पर कोई प्रतिबंध नहीं है।

अंतरराष्ट्रीय पर्यटक हवाई और रेल दोनों ही माध्यम से यहां पहुंच सकते हैं। कोणार्क मंदिर से सबसे करीबी हवाई अड्डा भुवनेश्वर में मौजूद है। भारत के कई शहरों से यहां के लिए उड़ान उपलब्ध है। दिल्ली, कोलकाता, चेन्नेई या फिर मुंबई जैसे महानगर से भुवनेश्वर के लिए सीधी उड़ान सेवा मौजूद है। आपने भारत में कदम इन चारों में से किसी शहर के जरिए रखा हो, यहां से आप भुवनेश्वर के लिए घरेलू उड़ान ले सकते हैं। भुवनेश्वर से पुरी स्थित कोणार्क मंदिर की दूरी 65 किलोमीटर है जिसके लिए आप टैक्सी ले सकते हैं। अगर आप ट्रेन से पहुंचना चाहते हैं तो दिल्ली से पुरी के लिए पुरुषोत्तम एक्सप्रेस, पुरी एक्सप्रेस, नीलांचल एक्सप्रेस जबकि कोलकाता से पुरी के लिए हावड़ा-पुरी एक्सप्रेस, हावड़ी पुरी श्री जगन्नाथ एक्सप्रेस ट्रेनें चलती हैं।

सभी तस्वीरें यूनेस्को की साइट से ली गई हैं।

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